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६६६] [कबीर

                                     (२६५)

मन रे जब तै राम कहौ,

       पीछै कहिबे कौ कछू न रहौ ॥ टेक॥

का जोग जगि तप दांनां, जौ तै रांम नांम नहीं जांनां॥ कांम क्रोध दोऊ भारे, ताथै गुरु प्रसादि सब जारे॥ कहै कबीर भ्रम नासी, राजा रांम मिले अनविनासी॥ सन्दर्भ--कबीर राम नाम की महिमा करते हैं। भावर्थ--रे मन, जब से तूने राम नाम कहन आरंभ किया है उसके बाद अन्य कुछ कहने के लिये रह ही नहीं गया है। (उसी में सब कुछ कह दिया है।) यदि राम के नाम का महत्व ना जाना, तो योग, जप, तप तथा दान करने से क्य लाभ है? काम और क्रोध दोनो अत्यन्त प्रबल होते हैं। इसलिए मैंने गुरु की कृपा से नष्ट कर दिया है। कबीर्दस कहते हैं की काम क्रोध के समाप्त हो जाने के फलस्वरूप मेरे समस्त भ्रमो का नाश हो गया है और अब मुझे अविनशी भगवान राम की प्राप्ति हो गई है। विशेष--जब तक 'काम' है, तब तक विकार हैं तब तक मोह एव भ्रम क रहना स्वभाविक ही है। यही माया का प्रपच है। समभाव के लिए देखे--

              घ्यायतो विषयान्प्रास सडग्स्तेषूपजायते।

सडाग्त्सजायते काम कामात्कोवोऽभिजायते। क्रोधाद्र्वति संमोह समोहात्स्मृतिविभ्रम। स्मृतिभ्र शाद्बुध्दिनाशो बुध्दिनाशात्प्रणश्ययति। रागद्वेषवियुत्त्कैस्तु विषायानिदिंयैश्चरन्। आत्मवश्यैविघेयात्मा प्रसादमघिगच्छति।

                (श्रीमद्भगदगीता--२/३२--६४)

रांम राइ सा गति भैई हंमारी,

        मो पै छूटत नही ससारी॥टेक॥
यू यखी उडि जाइ आकासां, आस रही मन मांही।

छूटी न आस टूट्यौ नही फंधा, उडिबौ लागा काहीं॥ जो करत होत दुख तेई, कहत न कछू बनि आवै। कुंजर ज्यूं कसतूरी का मृग, आपै आप बँधावै॥ कहै कबीर नहीं बस मेरा, सुनिये देव मुरारी। इत भैभीत डरौ जम दूतनि, आये सरनि तुम्हरीं॥ शब्दार्थ--लागौ काही=क्या लाभ?