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ग्रन्थावली ] [ ६९७

     संदर्भ- कबीर दु ख-निवृति हेतु भगवान की शरण को एक मात्र अवलम्बन

मानते हैं ।

     भावार्थ---रे राजा राम। मुझसे ससार का मोह छोडते नहीं बनता है।

मेरी भी हालत उस पक्षी की तरह हो गई है जो आकाश में ऊचा उड तो जाता है परन्तु भोजन-वामना के कारण उसका मन पृथ्वी से बँधा रहता है । मन से वासना जाती नहीं है । इस कारण मोह का बन्धन टूटना नही है । तब आकाश में उडने से--ज्ञान-ध्यान से क्या लाभ हैं ? मै जो काम सुख-प्राप्ति के लिए करता हूँ, वे दुख के हेतु बन जाते हैं । जैसे हाथी हथिनी के प्रति मोह के करण अपन आपको बंधा देता है तथा कस्तूरी-मृग सुगन्ध की वासना के वशीभूत होकर इधर-उधर भटकता रहता है, वैसे ही जीव भी मोह एव वासनाओ के कारण अपने आपको सासारिक प्रपचो मे फँसा देता है तथा अपनी वासनाओ के वशीभूत होकर चारो और भटकता फिरता है । कबीरदास कहते हैं कि हे मुरारी । मेरी प्रार्थना सुनो । सासारिक वासनाओ पर मेरा कोई वश नहीं चल रहा है । मैं सासारिक बन्धनो से भयभीत हू तथा यम के दूतो से डरा हुआ हूँ । इसलिए तुम्हारी शरण में आया हू ।

     अलंकार- (१) उदाहरण--सोगयति   मनमाही ।
            (११) अन्योन्य---छूटी न आस  फदा ।
            (१११) गूढोक्ति----लागौ काही ।
            (४) विरोधाभास -जो सुख्ॱॱॱॱ दुख तेई ।
            (५) सम्बन्धातिशय्योक्ति---कहत नॱॱॱॱ आवै ।
            (६) उपमा-कुजर ज्यूँ कस्तूरी का मृग ।
                            ( २६७ )

रांम राइ तू ऐसा अनभूत अनूपम, तेरी अनभै थै निस्तरिये । जे तुम्ह कृपा करो जगजीवन, तौ कतहू न भूलि न परिये ।। टेक ।। हरि पद दुरलभ अगम अगोचर, कथिया गुर गमि विचारा । जा कारंनि हम ढूढत फिरते, आथि भर्यो संसारा ।। प्रगटी जोति कपाट खोलि दिये, दगधे जम दुख द्वारा । प्रगटे विश्वनाथ जगजीवन, मैं पाये करत विचारा ।। देख्यत एक अनेक भाव है, लेखत जात अजाती । बिह की देव तवि ढूंढत फिरते, मंडप पूजा पाती ।। कहै कबीर करुणामय किया, देरी गलियां बहु विस्तारा । रांम कै नांव परंम पद पाया, छूटै विघन बिकारा ।।

 शब्दार्थ--अनभै=अनुभूति । गमि=अनुभूति द्वारा प्राप्ति । आखि=

व्याप्त । जात=जन्मा । अजाती=अजन्मा । विह=उम । तव=पहले । गलिया=विभिन्न मत-पथ ।