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६९८ ] [ कबीर

संदर्भ-कबीरदास मत-पथौं की व्यर्थता की ओर संकेत करके राम भक्ति

का प्रतिपादन करते है ।

भावार्थ-रे मेरे स्वामी राम, अप ऐसे साक्षात् अनुभूतिस्वरुप एव अनुपम

हो कि तेरी अनुभूति मात्र से भवसागर पार किया जाता है । हे जगत् के प्राण, यदि तुम कृपा करते रहो तो कहीं भी भूलकर भी जीव माया के बंधन मे नहीं पडता है । भगवान का स्वरूप अत्यन्त दुर्लभ दुष्प्राप्य एव इन्द्रियातीत है । गुरु ने अपनी अनुभूति से प्राप्त ज्ञान के आधार पर यह विचार प्रकट किया है । जिस परम तत्व को हम ढूँढते फिरते हैं, वह सम्पूर्ण ससार मे व्याप्त है । गुरु के उपदेश द्वारा मेरे हृदय मे जो ज्ञान ज्योति प्रकट हुई है उसके द्वारा मेरे अन्त करण के किवाड़ खुल गए है आन्तरिक चक्षु खुल गए हैं और उसके द्वारा यम के कष्ट-कर्मफल के बंधन समाप्त हो गए है । अब जगत के प्राण विश्वनाथ प्रकट हो गए है । मैंने विवेक पूर्वक चिन्तन करते हुए उनको प्राप्त किया है । वही एक परम तत्व अनेक भावो (रूपो) में देखा जाता है । वह अजन्मा भी जन्मा हुआ सा वर्णित है । उसी देवता को हम पहले मडप मे पूल पती की पूजा के द्वारा प्राप्त करना चाहते थे । कबीर कहते है कि है करुणामय । तेरे नाम पर जो अनेक मत-पथ प्रचलित हैं, मैं उनमे भटकता रहा और इसी कारण तेरे साक्षात्कार में मुझको इतनी देर हो गई । राम के नाम के द्वारा मैंने परम पद की प्राप्ति कर ली है और मेरे समस्त विघ्न (कचन कामिनी आदि) एव विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर आदि) दूर हो गए है । अलंकार-- (१) अनुप्रास- अनभूत अनुपम अनभै, अगम अगोचर । दगधे दुख द्वारा । परम पद पाया । (११) रूपकातिशयोक्ति-कपाट । (१११) विरोधाभास- जात्य अजाती । विशेष- (१) वाह्याचार की निरर्थकता की ओर सकेत है । तुलना करें- तुलसिदास ब्रत दान ग्यान तप, सुद्धिहेतु स्रुतिगावै । राम-चरन अनुराग-नीर-बिनु मल अति नास न पावै । एव -- नाहिन आवत आन भरोसो ।

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बहुमत सुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ तहाँ झगरो सो । गुरु कहौ राम-भजन नीको मोहिं लागत राजडगरो सो ।

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राम नाम बोहित भव-सागर चाहै तरन तरोसो ।

                             --गोस्वामी तुलसीदास
                         ( २६८)

रांम राइ को ऐसा बैरागी,

        हरि भजि मगन रहै विष त्यागी ।। टेक ।।