पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७०३

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ग्रन्थावली] [६६६ ब्रह्रा एक जिनि सिष्टि उपाई, नांव कुलाल धराया । बहु बिधि भांडै उनही घड़िया, प्रभू का अन्त न पावा ।। तरवर एक नांनां बिधि फलिया, ताकै मूल न साखा । भौजलि भूलि रहा रे प्राणैं, सौ फल कदे न चाखा ।। कहै कबीर गुर बचन हेत करि, और न दुनियां आथी । माटी का तन मांटी मिलि है, सवद गुरू का साथी ।। शब्दार्थ--कुलाल=कुम्हार । भाडै=वर्त्तन । घडिये=गडे, बनाए । भौरुलि= भव-जल, संसार-रूपी जल । कदै= कभी । आथी-अस्तित्व वाली । संदर्भ-कबीर ससार की निरर्थकता तथा गुरु की महिमा का प्रतिपादन करते हैं । भावार्थ-हे राम-ऐसा वैरागी बहुत कठिनाई से मिलता है जो विपयो को छोडकर भगवान के भजन मे मग्न रहे । एक ब्रह्मा हुए जिन्होंने सृष्टि उत्पन्न की और अपने आपको कुम्हार कहलवाया । उनहोने अनेक शरीर रूपी बर्तनों को बनाया, परन्तु वह भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सके । संसार-रूपी एक वृक्ष मे अनेक प्रकार की विषय-वासनाओ के फल लगे हैं । इस वृक्ष की न जड है और न उसके शाखाएँ ही हैं । यह प्राणी ससार के इन फल रूपी विषयों की मृग तृष्णा के ज्ल ल से अपने वास्तविक स्वरूप एव वास्तविक लक्ष्य को भूला हुआ है । विषय रूपी ये फल उसको खाने के लिए कभी नहीं प्राप्त होते है अर्थात् वह विषयों के द्वारा सच्चे सुख की प्राप्ति कभी नहीं कर पाना हैं । कबीरदास कहते हैं कि गुरु के वचनों पर विश्यास करो । शेष ससार अस्तित्वहीन (मिथ्या) है । मिट्टी का यह शरीर मिट्टी से ही मिल जाएगा । केवल गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही हमारा सच्चा साथी है । अलंकार--(१) वझोक्ति-को ऐसा वैरागी । (११) रूपकातिशयोक्ति--कुलाल, भाडे, तरवर । (१११) निदर्शना--भीजलॱॱॱ चाखा । (४) विभावना---तरवर एक साखा । (५) रूपक--भौजल । विशेष- (१) निर्वेद सचारी भाव की व्यजना है । (११) तुलना कीजिए-- जगु देखन तुम पेखन हारे । विधि हरि सभु नचावन बारे । तेउ न जाना मर्म तुम्हारा । और तुम्हें को जाननि हारा ।

                 ( २६६ )

नैक निहारि हो माया बीनती करै,

 दीन वचन बोले क र जोरे, फुनि फुनि पाइ परै ।। टेक॥