पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७०४

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७००] [कबीर

कनक लेहु जेहु जेता मनि भावै, कांमनि लेहु मंनं हरनीं । पुत्र लेहु विद्या अधिकारी, राज लेहु सब धरनीं ।। अठि सिधि लेहु तुम्ह हरि के जनां, नवै निधि है तुम्ह आगै । सुर नर सकल भवन के भूपति, तेऊ लहे न सांगै ।। तै पापणी सबै संघारे, काकौ काज संवारचौ । जिनि जिनि सग कियौ है तेरौ, कोयेसासि न मारचौ ।। दास कबीर रांम के सरनै, छाडी झूठी माया । गुर प्रसाद साध की संगति, तहां परम पद पाया ।। शब्दार्थ- पुनि पुनि=पुन्: पुन:, बार बार । कनक = स्वण । कामनि= कामिनी स्त्री । ये सासि=विश्वास । सन्दर्भ- कबीरदास ज्ञान दशा का वर्णन करते है । भावार्थ-माया भगवान के भक्तों से प्रार्थना करती है, अत्यन्त दीन वचन बोलती है और बार-बार पैर पड़ती हुई कहती है कि हे हरि भक्तों ! जरा मेरी ओर कृपा की दृष्टि कर दो । जैसा और जितना सुवर्ण चाहिए ले लो, मन-भावनी और मन-हरण करने वाली कामिनी स्त्री ले लो, तुम विद्वान पुत्र लो, सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य ले लो । आठों सिद्धियाँ और नव निधियाँ ले लो । हे हरि के भक्तों जिन वैभवो और सिद्धियो को देवता, मनुष्य एव सम्पूर्ण पृथ्वी के राजा मागने पर भी प्राप्त नही कर पाते हैं, वे सब तुम्हारे समक्ष तुम्हारी सेवा में प्रस्तुत हैं । भक्त जन उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे पापिन तूने सबको नष्ट किया है । क्या तूने आज तक किसी का काम बनाया है ? जिन-जिन लोगों ने विश्वास करके तेरा साथ किया है उन सबको तूने विश्वासघात करके मारा ।" भक्त कबीर का कहना है कि वह तो भगवान राम की शरण मे है । उन्होंने झूठी माया को त्याग दिया है । गुरु की कृपा और साधु जनों की सगति के द्वारा कबीर ने परम पद प्राप्त कर लिया है । अलंकार--(१) गूढोत्तर- पूरा पद । (११) पुनरुक्ति प्रकाश-पुनि-पुनि । (१११) मानवीकरण-माया । (४) पदमैत्री-लेहु जेहु लेहु । (५) विशेषोक्ति की व्यंजना-लहै न माजै । विशेष--- (१) प्रश्नोत्तर शैली मे माया और भक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध का सुन्दर निरूपण है । इसमें उपनिषद् का प्रभाव स्पष्ट है । (११) कबीर बताते हैं कि माया ज्ञान प्राप्ति की अन्तिम अवस्था तक प्रलोभन देकर साधक को पथ भ्रष्ट करना चाहती है । इसी से तो कहते हैं कि सिद्धि के प्रत्येक फूल के पीछे वासना का सर्प छिपा रहता है । वह जाने कब सिर निकाल कर काट ले । इसी कारण साधक को अन्त समय तक सावधान रहने का उपदेश दिया जाता हे ।