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७०४] [कबीर

              (३) रूपकातिशयोक्ति - तजि अमृत लाई।
               (४)रूपक - सकति सनेह दीपक।
 विशेष- (१)जातिवाद की निरथंकता का प्रतिपादन है। कबीर बार-बार यही कहते हैं कि-
       
        जागति पांति पूछै नहिं कोई। हरि कहें भजै सो हरि का होई।
        वह तो अन्यत्र भी कह चुके हैं कि-
        गुरू प्रसाद साधु की सगति जग जीतै जाय जुलाइा ।
          (२)मन बरजै  करई- इस पद मे कबीर ने व्यक्ति के अन्तर मे होने वाले संघर्ष की ओर बड़ी ही कुशलता के साथ सकेत किया है। निश्चयात्मकता बुद्धि सन्मार्ग का निर्धारण करती है, परन्तु प्रवृत्यात्मक मन उस ओर नही जाता है। फलत हमारे बुद्धि जगत एव भाव-जगत के मध्य- हमारी कथनी और करनी के मध्य सदैव संघर्ष चलता रहता है। हम सब प्रायः सोचते ठीक है, परन्तु अपनी विषयासक्ति के प्रबल होने के कारण तदनुसार आचरण नहीं कर पाते हैं। इसी कारण अपने जीवन और पुण्य-क्षेत्र को क्षीण करते रहते है।
               (२७२)
        रे सुख इब मोहि बिष भरी लागा,
        इनि सुख डहके मोटे मोटे छत्रपति राजा॥ टेक॥
        उपजै बिनसै जाइ बिलाई, सपति काहू कै सगि न जाई॥
        धन जोबन गरब्यौ ससारा, यहु तन जरि र्बा(है है छारा।
        चरन कवल मत राखि ले धीरा, राँम रमत सुख कहै कबीर॥
    शबदार्थ - इव=अब। डहके=डहके=धोखा खाया। बिनसै=नष्ट होता है। बिलाई=विलीन होता है। कवल=कमल। मोटे=बड़े।मत=मति,बुद्धि।
    संदर्भ- कबीर का साधक जीवात्मा अपने मन को सम्बोधित करके कहता है कि राम भक्ति मे ही वास्तविक आनन्द है। 
    
     भावार्थ रे मन। सांसारिक सुख अव मुक्भे जहर से भरा हुआ लगता है। इन इन्द्रिय सुखो के द्वारा बड़े-बड़े छत्रपति राजाओ ने धोखा गया है अथवा वे इनके द्वारा ठगे गए है। ये सांसारिक सुख-सम्पति उतपन्न होही है, क्षीण होती है और अन्न्त सर्वथा नष्ट हो जाती है। यह सम्पति किसी के साथ नही जाती है। धन एव यौवन के मद मे संसार के समस्त प्राणी गर्वित रहते हैं। उन्हे समक्भ लेना चाहिए कि यह (पंचभीतिक) शरीर जल-वल कर राख हो जाएगा। कबीरदास कहते हैं कि हे जीव, तू अपनी बुद्धि को स्थिर करके भगवान के चरणरविंद मे लगा दे। राम मे अनुरक्त्त होने मे ही वास्तविक सुख की प्राप्ति होती है।
      अलंकार- (१)पुनरूक्त्ति प्रकाश-मोटे-मोटे।
              (२)पदमैत्री-जरि-वरि।
              (३)रूपक-चरन कवल।