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की प्रचंड ज्वाला में जलता हुआ मानव उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार दीपक की लौ पर पतंग नष्ट हो जाता है। वासना में संलग्न मानव कभी भी साधना और परमार्थं में दत्त-चित्त नहीं हो सकता है। कबीर ने मन, वचन, कर्म से ब्रह्मचर्य, पालन करने का उपदेश दिया है। सयम जीवन के लिए सबसे बड़ा वरदान और प्रेरक शक्ति है। कबीर ने इसीलिए मानवतावादी भावना के प्रसार के लिए ब्रह्मचर्य को उपयोगी माना है। कबीर के इस प्रकार के उपदेश चेनावनी के अंग में संग्रहीत हुए हैं। इसके अतिरिक्त "पतिव्रता को अंग" में भी संयम एवं ब्रह्मचर्यं भावना की अभिव्यक्ति हुई।

उपर्युक्त इन तीन महाव्रतों पर विचार कर लेने के बाद विचारणीय हैं शेष चार महाव्रत। ये महाव्रत हैं अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह तथा अभय। कबीर ने इनके प्रति इसलिए महत्व स्थापित किया है कि ये गुण या व्रत औदार्य, विनय शीलता और व्यापक भावनाओं का सर्जन करते हैं इनके द्वारा मानव-मानव को समझने का प्रयत्न करता है और व्यापक भावनाओं को धारण करता है। कबीर ने मानव की हर प्रकार की प्रवृत्तियों की आलोचना की। उन्होंने अपने समय की जनता को बताया कि मनुष्य को एक दूसरे का शोषण नहीं करना चाहिए। सबको दीनता की भावना ग्रहण करके सच्चाई और ईमानदारी के साथ जीवन यापन करना चाहिये। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि—

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय
जस दुतिया को चन्द्रमा सीस नवै सब कोय॥

सच यह है कि यदि सभी संतोष और दीनता को ग्रहण कर ले, तो संसार के समस्त अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार तथा सघर्ष समाप्त हो जायँ और मानव, मानव बनकर जीवन यापन करने लगे। कबीर के मानवतावाद के सन्तोष एवं दीनता अभिन्न अंग हैं। इन उपदेशों ने युग युग से पीड़ित एवं निराश जनता के हृदय में आशा का संचार किया। कबीर ने काव्य रचना में संजोये हुए सरल भावों द्वारा भटकती हुई जनता का पथ प्रदर्शन किया। पथ भ्रष्ट को मार्ग दिखाई पड़ा और वाह्याडम्बर से दूर मानव एक दूसरे के दुःख एवं कष्ट की ओर ध्यान देने लगा। धीरे-धीरे जनता इस ओर आकर्षित हुई।

कबीर का विचार था कि सद्गुण व नैतिक शक्ति बहुत ही प्रभावोत्पादक होती है। इस कारण मानव में मानसिक शक्ति बढ़ाकर उत्साह भरने की चेष्टा की। उनका विचार था कि मनुष्य में वह शक्ति है, कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर ने मानवतावाद की