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(३) सच्ची भक्ति - भावना का प्रतिपादन हे। (४) सच्चा ईश्वर प्रेम ही जीवन का चरम फल है। यह सीधी-सी बात लोगो की समझ मे नहिं आती हे। इसी बात को देखकर कबीर हैरान हैं।

                 (२०६)
             रांम राइ भई बिगूचनि भारी,
                 भले इन ग्यांनियन थै संसारी॥ टेक॥ 
             इक तप तीरथ औगांहै, इक मांनि महातम चांहैं ॥
             इक मै मेरी मै बीभै, इक अहंमेव मै रीभै।
             इक कथि कथि भरम लगांवै, समिता सी बस्त न पावै॥
             कहै कबीर का कीजै, हरि सूभै सो अंजन दीजै ॥
       शब्दार्थ - विगूचनि = उलभन, कठिनाई,असमंजस, औगाहैं = अवगाहन (स्नान) करते हैं। मानि - मान ,सम्मान। विभे=वीधें, वधते हैं।अहमेव="मैं ही हुँ"-मिथ्याभिमान।कथि=विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना। समिता = समाप्त अथवा सवित् आत्मबोध। वस्त = वस्तु। अजन = काजल, लक्षण से ग्यान, आंँखों की दृष्टि को शुद्ध करे। 
       संदर्भ - कबीर के विचार से 'विवेक' ही भगवद् प्राप्ति का उचित सोपान है। 
       भावार्थ - हे भगवान, मेरे सामने तो बड़ी भारी कठिनाई उपस्थित हो गई है।इन तथाकथित ग्यानियो (ढोगी एवं पाखण्डी लोगो) की उपेक्षा तो ये ससारी लोग (गृहस्थ लोग) ही अच्छे हैं। इन ग्यानियों मे कोई तो तप करते हैं, कोई तीर्थोँ मे स्नान करते हैं, कोई मान चाहते हैं और कोई अपने आपको (भगत जी आदि) कहलाकर) बडा दिखाना चाहते हैं। इनमे बहुत से मैं - मेरा' के मोह बंधन में फैसे हुए हैं और किन्हीं को अपनी शेखी बधारने की लत पड गई है। इनमे कुछ लोग विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तों का  वर्णन करते हुए अपने आपको भ्रम में फैसाए हुए हैं। परन्तु इन्में कोई भी ऎसा नहीं है जिसको आत्म - बोध  अथवा समभाव जैसी वस्तु की प्राप्ती हो गई हो। कबीरदास कहते हैं कि तथाकथित ग्यान और ग्यानियों से छुटकारा कैसे हो? यथार्थ बात तो यह है कि उस ग्यान की प्राप्ती की जानी चाहिए जिससे भगवान का दर्शन प्राप्त हो सके। 
    अलंकार - (१) पुनरुक्ति प्रकाशा - कथि कथि । 
     विशेष -  (१) 'अजन' ग्यान का प्रतीक है। 
     (२) अहकारी एव ढोगी ग्यानी की उपेक्ष वह गृहस्त कही अधिक अच्छा है जो निष्ठा पूर्वक अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। सच्चे गृहस्त की प्रशंसा एवं ढोगी ग्यानी की भर्त्सना है। 
     (३) इसमे तत्कालीन सामाजिक जीवन की भी एक भलक प्राप्त हो जाती है।