पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्रन्थावली]

है। कबीर की विचार-धारा (मगन-सरीरा आदि) हमे तो एक दम उसी के अनुकूल दिखाई देती है- तदपिता खिला चारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति। सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च। (६७९) राम राइ इहि सेवा भल मांनै, जै कोई राम नाम तन जानै॥टेक॥ रे नर कहा पषालै काया, सो तन चीन्हि जहां थे आया॥ कहा दिभूति जटा पट बाँधै, काजल पंस हुतासन साधें॥ र राम मां दोई अखिर सारा, कहै कबीर तिहू लोक पियारा॥ शब्दार्थ -- तत = तत्व, रहस्य। पषालै = प्रक्षालित करता है, धोता है। पट = वस्त्र्। हुतासन = अग्नि, हवन करना अथवा पचाग्नि की साधना। सन्दभ् - कबीरदास राम नाम की महिमा का वर्णन करते है। भावार्थ - जिसको राम-नाम के तत्व का ज्ञान है, उसी की सेवा (भक्ति) को भगवान राम अच्छा समभ्कते है। रे मानव तू इस शरीर को क्यो धो रहा है? उस परम तत्व को जानने का प्रय्त्न कर जो तेरा उदगम कारण है अर्थात जहाँ से तेरा जन्म हुआ है। भस्म रमाने, जटा रखने तथा विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करने से क्या होता है? तीर्थों के जल मे स्नान करने से अथवा पचाग्नि मे तपने से किवा हवन करने का भी कोई उपयोग नही है। 'रकार' और 'मकार' अर्थात 'राम' ये दो अक्षर ही सार पदार्थ है। कबीर कहते है कि तीनो लोको मे ये दो अक्षर ही प्रिय वस्तु है - ये ही सुन्दर एव मगलकारी है। अलकार-(१) गोढोक्ति - रे नर आया।

      (२) वक्रोक्ति - कहा पषालै साधे।
      (३) पदमैश्री - बाँधै साधै।

विशेष - (१) वाहयाचर का विरोध है।

      (२) ज्ञान-लक्षण भक्ति ही श्रेश्ठ है।
      (३) 'राम-राम' के स्मरण मे ही जीवन की सार्थकता है। तुलना कीजिए-

आखर मधुर मनोहर दोऊ। वरन बिलोचन जन जिय जोऊ। सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निवाहू। x x x एक छत्रु एकु मुकुतमणि सव वरननि पर जोउ। तुलसी रघुवर नाम के वरन विराजत दोउ। x x x राम नाम मनिदीप घरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर वाहेरहुँ जौ चाहसि उजियार॥ -- गोस्वामि तुलसीदास