पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

इहि विधि राम सू ल्यौ लाइ। चरन पाषे निरति करि, जिम्या बिनां गुंण गाइ॥टेक॥ जहाँ स्वांति बू द न सीप साइर, सहजि मोती होइ। उन मोतियन मै नीर पोयै, पवन अम्बर धोई॥ जहाँ धरनि बषै गगन भीजे, चन्द सूरज मेंल। दोइ मिलि तहाँ जुडन लागे, करत ह्ंसा केलि॥ एक बिरष भीतरी नदी चाली, कनक कलस समाइ। पंच सुवटा आइ बैठै, उदै भई बनराइ॥ जहाँ बिछट्यौ तहाँ लाग्यौ, गगन बैठौ जाइ। जन कबीर बटाऊवा जिनि मारग लियौ चाइ॥ शब्दार्थ- ल्यौलाइ = लौ लगा। साइर = सागरा। नीर = पानी, काति। हसा = शुद्ध वुद्ध जीवात्मा। विरप = वृक्ष। नदी = सुपुम्ना। कनक-कलश = सोने का कलश, सहस्त्रार। पच सुवटा = पाच तोते (पच प्राण-प्राण, अपान, उदान, समान तथा व्यान)। वनराइ = वनराजी, विभिन्न सद्वृत्तियाँ। जन = भक्त। वटाऊवा = पार्थक। चाइ = चाव पूर्वक। मारग लीयौ = मार्ग अपना लिया है। सन्दर्भ - कबीरदास कायायोग की साधना का वर्णन करते है। भावार्थ - रे साधक तू भगवान राम मे इस प्रकार लौ लगा। उनके चरण-कमलो के समीप नृत्य कर। जीभ के बिना उनका गुण-गान कर अर्थात मन मे उनके गुणो का स्मरण कर। जहाँ न स्वाति नक्षत्र के जल की बून्द गिरती हे ,न सीपी हे और न सागर हे,वही मोक्श रूपी मोती सहज मे प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है और न सागर है, वही मोक्ष रूपी मोती सहज रूप से प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है कि आत्म समर्पण करने पर कार्य-कारण सम्बन्धो से प्रतीत सहज अनुभूती रूप मोती प्राप्त होगा। उस मोती मे परमानन्द रूप काति समायी हुई है और प्राण रूप पवन एव ज्ञान-रूप आकाश उसे निर्मल रखते हैं। अभिप्राय यह है कि प्राण-साधना एव ज्ञानानुभूति के द्वारा उसको सम्पूर्ण विकारो से रहित बना दिया गया है। इस अवस्था मे कुण्दलिनी रूपी पृथ्वी से अमृत भरता है और ब्रह्मारन्ध्र रूप गगन उस अमृत का पान करता है। अभिप्राय यह है कि कुण्डली-शक्ति के जाग्रत होने पर शून्य-गगन-मडल अमृत की वर्पा से अभिसिंचित हो जाता है। इस अवस्था मे चन्द्र और सूर्य(इडा-पिगला) नाढियाँ मिलकर तदाकार होने लगती है तथा ज्ञानी जीवत्मा आनन्दमग्न हो जाता है। इस शरीर रूपी वृक्ष मे सुपुम्ना रूपी नाडी प्रवाहित होती है और सहस्त्रार रूपी स्वर्ण कलश आध्यात्मिक आनन्द द्वारा आपूरित हो जाता है। इस अवस्था मे पचत्राण यहा केनद्रित हो जाते हे और अन्त करण मे सद्व्र्व्र्त्तियो का उदय हो जाता है, मानो वनस्थली हरी-भरी हो उठी हो । (कतिपय