पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७१७

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ग्रेन्यावली ]

आलोचक 'पंच सुवटा' का अर्थ "पाच ज्ञानेन्तियाँ" करते हैं । तब भी इसके मूल भावार्थ में कोई अन्तर नही पडता है । तब इसका अर्थ इस प्रकार होगा कि पांचो इन्द्रियया रूपी तोते यहां आकर बैठ जाते हैं, अर्थात इन्द्रिया याँ बाह्य विषयों से विमुख होकर इस अनिन्दानुभूति का भोग करने लगती हैं । ) कबीर कहते हैं कि मेरी चेतना की अवस्थिति शुन्य में हो गई है अर्थात् आत्म चेतना का पर्यवसान विश्व-चेतना में हो गया है । मैं जहाँ से बिछुडा था, वही आकर बैठ गया हूँ अर्थात में अब तक भगवान ( परमात्मा ) से वियुक्त था, अब उसी में समाहित (तन्मय) हो गया हूँ । यह भक्त कबीर परमपद के मार्ग का पाथिक है । उसको अपना अभीप्सित मार्ग मिल गया है और उसने उसको पूरे उत्साह के साथ अपना लिया है ।

अलकार--(१) विभावना--जिम्या ' गाइ, जहाँ होइ, पवन अबर धोइ । (11) इलेष पुष्ट रूपक---मोती। (111) रूपकातिशयोत्ति-पवन, अम्बर, हसा, सुवटा 1 (|\/) विरोधाभास----- घरनि बरसे भीज्, ज्द सूरज मेलि, (\/) जहाँ बिछ्टुयौ लाग्यौ । विशेष-- (1 ) रूपको तथा प्रतीकों का प्रयोग है । (11) कुण्डलिनी शक्ति प्र्थ्वी से उदभूत होती है । इसी से उसको 'धरती' कहते हैं । (111) इस पद से 'उलटवांसी' की पद्धति अपनाई गई हैं । (|\/) काया योग की सिद्धियौ का वर्णन है । (\/) जहाँ ‘ लाग्यौ …… अर्द्धतावस्था की और सकते है । ( \/| ) निविकल्प समाधि का वर्णन है । इसी की भूमा का सुख भी कहा गया है । (\/|||) कनक कलम-विशव्-चेतना की अवस्था की अनुभूति को ही अरविन्द ने 'स्वम्नरें-त्रर्षा कहा है 1 प) पच सुवटा आई वैठे-इरिद्रयौ का अन्तमुखी होना ज्ञान-प्राप्ति दशा का महत्वपूर्ण लक्षण है----- हों अपनापौ तृब खानिहौ, जब मन फिरि परि' है । तथा""- सन्मुख् होइ जीव मोहि जवही ही । जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं ।

                                              --गोस्वामी तुलसीदास

(१x) कुण्डलिनी-देखें टिप्पणी पद २ १ ९ । (x) विशवव्र्श् देखे टीप्पणी पद ११,१६४ । (x१) जहाँ' विछडमौ ……देखें टिप्पणी पद २६ 1 (x११) शून्य -देखे टिप्पणी पद १६४ ।