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ओर अधिक से अधिक ध्यान दिया। प्रेम, अहिंसा, सत्य, शान्ति, त्याग क्षमा, दया, सहनशीलता ही मानवतावाद के गुण हैं। इस पर कबीर ने स्थान-स्थान पर प्रकाश है।

धार्मिकता

कबीर साहित्य की द्वितीय महान् परम्परा "धार्मिकता" है। इनके सम्पूर्ण साहित्य की रचना ही धर्म को दृष्टि में रख कर हुई है। यह अवश्य है कि धर्म के क्षेत्र में उन्होंने एक क्रान्ति उपस्थित कर दी। परन्तु फिर भी जिस कठोरता से रूढ़ियों का विरोध किया उसी दृढ़ता से उन्होंने बुद्धिवादी सिद्धान्तों की भी स्थापना की है। वे किसी भी बात को तभी स्वीकार करते थे, जब वह उनकी बुद्धि के अनुभव की कसौटी पर खरी उतरती थी। कबीर सच्चे सत्यान्वेषक थे। उनका धर्म बड़ा व्यापक है। जिस प्रकार उनका ब्रह्म व्यापक और सब जाति वर्गों का जन्मदाता है, उसी प्रकार उनका धर्मं भी व्यापक है। इनका धर्म सार्वभौमिक और युगों तक अभिनव बना रहने वाला धर्म है। देश काल की सीमाएँ उनके धर्म और उनके उदात्त रूप का स्पर्श नहीं कर पाती हैं। कबीर का धर्म-धनी-दीन बालक-वृद्ध, नर नारी सबके लिए समान रूप से उपयोगी और महत्वपूर्ण है। उनके व्यापक धर्म का आधार मानव की शाश्वत सद्प्रवृत्तियाँ हैं। यही शाश्वत सद्प्रवृत्तियाँ जीवन को उदात्त और समुन्नत बनाती हैं। कबीर ने मानव जीवन को उन्नत और विकासशील बनाने के लिए उपदेश दिये।

कबीर की वानियों में बारम्बार इन्हीं बातों पर जोर दिया गया है। उन्होंने औदार्य, दया, क्षमा, त्याग, सहनशीलता, अहिंसा, धैर्य और सत्य को मानव जीवन और मानव प्रकृति के अविच्छिन्न अंग माने हैं। उनके काव्य में इन विषयों पर शतश साखियों की रचना हुई और प्रत्येक साखी उनको सत्यानुभूति की दृढ़ प्रमाणित करने में समर्थ है।

कबीर का धार्मिकता वाह्यचारी, वाह्याडम्बरों पृथक और परे है। उनकी धार्मिकता में छुआ छूत, चन्दन-तिलक, व्रत माला, जर तप, जाप, नमाज और अजान में नहीं सन्निहित है। वरन उनकी धार्मिकता व्यक्त है, शुद्ध है, और उदात्त है। उनका सन्देश है, कि मानव को मानव के सहज धर्म का परिपालन करना चाहिए। उसे 'सुरत्व को जननी' मानव योनि को दूषित कर्म करके अपना नित नहीं करना चाहिए। यही कबीर की धार्मिकता है, वही अत्यन्त व्यापक धर्म है।