पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७२२

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कहा पुरान जु पढे अठारह, उरध घूग के छूटै। जग सोभा की सफल वडाई। इन ते कछु न खूटै। करनी और कहनी कछु और, मन दसहू दिसि टूटै। काम क्रोध मद लोभ सत्र है, जो इतननि सो छूटे। सूंरदास तव हो तम नासै, ग्यान-अगिनि-भ्र्र फूटै।

                               --महात्मा सूरदास                                (२८४)

बिरहिनी फिरै है नाथ अधीरा, उपजि बिनां कछू समझि न परई, वांझ न जांनै पीरा ॥टेक॥ या बड बिथा सोई भल जांनै,रांम बिरह सर मारी। फैसो जांनै जिनि यहु लाई, कै जिनि चोट सहारी॥ स्ंग की बिछुरी मिलन न पावै सोच करै अरु काहै। जतन करै अरु जुगति बिधारै, रटै राम कू चाहै॥ दीन भई बूभ्र्ं सखियन काँ, कोई मोहि राम कू मिलावै॥ दास कबीर मीन ज्यू तलपै, मिलै भलै साचुपावे॥ शब्दार्थ--उपजि == विरह जन्म अघीरता की उत्पति। बड == बडी। सहारी == सहन की। त्राहै == कराहती है। सन्दर्भ -- कबीरदास की आत्मा रुपी पत्नी अपने पीत राम के वियोग मे व्याकुल है। भार्वथ-- हे नाथ। यह विरहिणी आपके बियोग मे अधार हुई मारी-मारी घूम रही है। जिसके ह्रद्य मे विरह की यह पीडा उत्पत्र नही हुई है वह मेरी इस व्यथा को नही समभ सकता है। ठीक ही है, बाभ्क नारी प्रसव की पीडा को नही जान सकती है। इस बडी व्यथा को वही अच्छी तरह समभ्क सकती है, जिसको राम के विरह का वाण लगा है। प्रेम की पीडा की अनुभुति या तो उसे होनी है जिसने यह प्रेम-पीडा को उत्पन्न किया है अथवा वह जिसने इसकी चोट को सहन किया है। हे भगवान, आपकी साथिन यह जीवात्मा आपसे विछड गई है और आपसे मिल नहि पा रही है।इसी कारण वह चिन्तित है और कराह रही है।वह आपसे मिलने के लिए उपाय सोचती है और तरह-तरह की तरकीबो पर विचार करती है। वह निरन्तर प्रियतम राम को ही रटती रहती है और उन्ही मे पूण्ंत-अनुरत है। यह अत्यन्त दीन बनी हुई अन्य भक्त आत्माओ रुपी सखियो से मिलन का उपास पूछ्ती रहती है और अनुनय करती है कि मुभे कोई भी राम से मिला दे। भक्त कबीरदास कहते है कि यह जीवात्मा राम के वियोग मे जल से वियुक्त मछली की तरह तडपती है। उनसे मिलने पर ही इसको सच्चे सुख की प्राप्ति होगी। अल्ंकार -- (१) निदश्ंना -- वाँभ न जानै पीरा।

        (२) रुपक -- विरहसर