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७२० ] [कबीर
नैन का दुख बेन जांनै,नैन का दुख श्रवनां | व्यंड का दुख प्रांन जांनै,प्रांन का दुख मरनां || आस का दुख प्यासा जाने,प्यास का दुख नीर | भगति का दुख रांम जांनै,कहै दास कबीर || सन्दर्भ--कबीरदास की विरह-व्यथा वर्णनातीत है | भावार्थ--भक्त के हृदय की पीडा को भगवान राम अच्छी तरह जानते है | उसको किससे कहू और उस पर कोन विश्वास करेगा ? प्रियतम को न देख्नने के कारण जो दुख होता है,उसका वर्णन वाणी द्रारा किया जाता है | वाणी द्रारा वर्णित दु:ख को सुनकर कानो को दुख होता है अर्थात दुख का वर्णन सुनने वाला दुखी होता है | शरीर के कष्ट को प्राण समभते है और प्राणो की व्यथा का ज्ञान मरने पर हो पाता है | आशा मे कितनी व्यथा समाई रहती है,इसका अनुभव पानी की आशा मे जीवित रहने वाला प्यासा व्यक्ति जानता है |प्यासे व्यक्ति की व्यथा को जल समभता है | कबीरदास कहते है कि भक्ति के कारण उत्पन्न होने वाली व्यथा का ज्ञान राम को ही है | भाव यह है कि जल ही यह जानता है कि उसके बिना उसके प्यासे को कितना कष्ट होता है | इसी प्रकार भगवान राम यह जानते है कि उनके प्रेमी भक्त को उनके दर्शन के अभाव मे कितनी व्यथा होती है| अलंकार--(|) निदशंना--नैन का दुख राम जानैं| (||) वत्रोक्ति--कहू काहि को मानै| विशेष--(|) लाक्षणिक शैली का प्रयोग है | (२) रहस्य भावना की अभिव्यक्ति है | (३) मार्मिक व्यथा ५की मार्मिक व्यंजना हैं | (४) शब्द विघान से प्रवाह एवं सगीतात्मकता है| (२५७) तुम्ह बिन रांम कवन सों कहिये, लागी चोट बहुत दुख सहियै||टेक|| बेध्यों जीव बिरह कै भालै,राति दिवस मेरे उर सालै|| को जांनै मेरे तन की पीरा,सतगुर सबद बहि गयों सरीरा|| तुम्ह से बैद न हमसे रोगी,उपजी बिथा कैसे जीवै बियोगी|| निस बासुरि मोहि चितवत जाई,अजहू न आइ मिले रांमराई|| कहत कबीर हुमकों दुख भारी,बिन दरसन क्यू जीवहि मुरारी|| संदर्भ--कबीरदास की जीवात्मा पत्नी की विरह-व्यथा का वर्णन है| भावार्थ--हे राम ! तुम्हारे अतिरिक्त मैं अपने मन की व्यथा किससे कहूँ?
विरह-व्यया की चोट मुक्मे गहरी लगी है और उसके कारण मुक्भे बहुत दुःख सहन करना पड रहा है |विरह रूपी भाले ने मेरे जीवात्मा को वेघ दिया है और यह व्यथा रात-दिन मेरे हृदय मे कसकती रहती है|मेरे अन्त;करण मे जो विरह-व्यथा