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ग्रंथवली ] ७२१ है उसको कोइ नहि जानता । सद्गुरु का सदुपदेश रूपी वाणी मेरे हृदय में समा गया हैं । (उसी से प्रेम कि यह पीडा उत्पन्न हुइ हैं । हे भागवान, तुमहारे समान कोइ प्रेम का उपचार करने वाला वैध नहि हैं, और मेरे समान कोइ अन्य प्रेम से व्यथित रोगी नहि हैं । मेरे मन में उटकत प्रेम-व्यथा उत्पन्न हो गयी हैं । अब मैं आपके वियोग से किस प्रकार जीवित रह सक्ति हूँ ? रात-दिन मुझे आप्की राह देखते हुए व्यतीन होते है । हे राजा राम, आप अभी भि आकर मुझसे नहि मिले हैं । कबीर कहते है कि इस विरह के कारण हमको बहुत भारि दुख है । हे मुरारी आपके दर्शनों के बिना मैं किस प्रकार जीवित रह सकूँगा ?
अलकार - (१) रूपक बिरह कै भालै (२) चकोक्ति- को जानें पीरा बिन मुरारी (३) अनन्वय- तुमसे रोगी (४) गढोक्ति- उपजी बियोगि (५) परिकराकुर- मुरारी विशेष - (१) रहस्य भावना कि व्यजना हैं। (२) भक्ति के विप्रलम्भ पक्ष का मार्मिक वर्णन हैं । (३) विरह कै भालै सहश कथन पर फारसि कि ऊहातमक शैलि का स्पष्ठ प्रभाव हैं। २५५ तेरा हरिं नामे। जुलाहा, मेरे राम रमण का लाहा ॥टेक॥ दस सै सूत्र कि पुरिया पूरी, चद सूर दोइ साखि। अनत नावं गिनि लइ मजूरी, हिरदा कवल मैं राखी ॥ सुरती सुम्रुति दोइ खूटी कीन्ही, आरंभ किया बेमकि। ग्यान तथ कि नलि भराइ, बुनित आत्मा पेषी ॥ अविनासी धंन लई मजूरी, पूरी थापन पाइ । रस बन सोधि सोधि सब आये निकटै दिया बताई ॥ मन सूधा कौ कूच कियौ है, ग्यान बिथरनी पाई । जीव कि गांठि गुढि सब भागी, जहां कि तहां ल्यौ लाई ॥ बेठि बेगारि बुराई थाकि अनभै पद परकासा । दास कबीर बुनत सच पाया, दुख संसार सब नासा॥ शब्दार्थ - राम रमण = आत्मा मे रमना । चद सूर = इडा पिंगाढा। सन्दर्भ - कबीरदास आत्म-दर्शन क वर्णन करते है । हे भगवान मैं तेरे नाम रूपी वस्त्र के बुनने वाला जुलाहां हूँ । इस व्यवसाये में मुझ्को यह लाभ है कि मुझे राम में रमण करने का (आत्म-साक्षातकार) का अवसर प्राप्त होता है । मैने हजार सूत्रो की पुटरी भरली है अर्थात अंत करण कि