पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७२६

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७२२] [ कबीर् सहस्त्रो भावनाएँ हि इस नाम स्मर्ण द्वारा आपूरित हो गइ है । वे हि इस वस्त्र कि उपादान बन गई है। सूत को उलझने से बचाने के लिए इडा और पिंगला नामक दोनो नाडियो को दो डडो (गोडो) का रूप दिया गया है। इस वस्त्र को बुनने के परिश्रमिक के रूप में मैने अनत नाम-स्मरण के रूप में प्राप्त किया है, अर्थात तुम्हारे अनत नामो को गिन कर उन्हे मैने अप्नि मज्दूरी के रूप मे लिया है। इस अमूल्य निधि को मैने अपने ह्रुदय मे हि रखा है। हरि-स्मरण रूपी इस वस्त्र के लिए मैने सुरति और स्मृति कि दो खुटियाँ बना ली है। इस प्रकार विवेक-रूपी वस्त्र बुनना आरंभ कर दिया है। मैनें ग्यान तत्व से अप्नी नली भरली है और इस प्रकार इस वस्त्र को बुनते हुए मैने आत्मसाक्षात्कार किया है। इस बुनाई की मजदूरी में मुझ्को अविनाशि भगवान कि प्राप्ति रूपी धन प्राप्त हुआ है और मैं पूर्ण रुपेण आत्मस्थित हो गया हूँ । अन्य साधक इस आत्म तत्व को इधर उधर सब जगह अनेक साध्नो- रूपी अरण्यो और वनो में खोजते रहो मैने इस तत्व को निकट हि बता दिया अर्थात मैने उन साधको के स्वरूप मे हि इस तत्व का सहन रूप से निर्देश कर दिया । मैने शुध मन कि कूची बनाई है और ग्यान कि विथर्नि (सूत को अलग सलग रहने वाला यन्त्र) पाई है और इस प्रकार जीव के मन कि गांठो और ममता कि घुडियाँ समाप्त हो गई है और जहाँ कि तहाँ लय लग गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम कि कूची से मैने विषय वासनाओ एव वाहाडम्बर के ऊपरी मैल को साफ किया है, तथा विवेक के द्वारा मन मे किसी प्रकार कि द्विविधा उत्पन्न नही होने दी है। इस प्रकार अह्ंकर की गाँठो और ममता के बन्धनों से मुक्त होकर जीव की लौ आत्म्स्व्रूप में लग गइ है। माया के फेर में जो बैठे-ठाले के व्यर्थ के काम थे, के भि समाप्त हो गए हैं और इस प्रकार आत्मा में अभय पद प्रकाशित हो गया है। कबीरदास कहते है कि इस हरी-स्मरण रूपी वस्त्र को बुनते हुए मुझे परम सुख (परम सत्य के साक्षात्कार) कि प्राप्ति हुइ है और दुख-रुप संसार का नाश हो गया है।

             अलंकार - (१) रुपकातिशयोक्ति- सम्पूर्ण पद ।
                            (२) साग रुपक- दस = पाई ।
                            (३) विरोधाभास - अनत नाउ गिनि लई ।
             विशेष - (१) साधना के प्रतीको का प्रयोग है ।
                          (२) नाम स्मरण कि महिमा का निर्देश है। इससे ग्यान और योग दोनो का
           योग है । साधक कबीर क आत्म-विशवास दृष्टव्य है।
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                         भाई रे सकहु न तनि बुनि लेहु रे,             
                              पीछै रांमहिं दोस न देहुरे ॥टेक॥
                         करगहिं एक बिनानि ता भीतरी पंच पंरानी ॥
                         तामै एक उदासी, तिहि तणि बुणि सब्रै बिनसी ॥