पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७२७

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प्रन्थावली ] [७२३

                                जे तूं चौसठी बरिया धावा, नही होइ पच सूं मिलावा ॥
                                  जे तै पांसै छसै ताणी, तौ तूं सुख सूं रहै परांणी ।
                                  पहली  तणिया  ताणां  पीछै  बुणिया  बांणां   ॥
                              तणि बुणि मुरतब कीब कीन्हां, तब रांम राइ पूरा दीन्हां ॥
                                    राछ भरत भइ सझा, तारुणी त्रिया मन बधा ॥
                                    कहै कबीर बिचारी, अब छोछी नली हंमारी ॥
                         शब्दाथॆ - थनि = थानकर । करगहि = शरीर रुपी करघा । बिनाबनी =
                   विज्ञानी एव विवेकी । उदासी = उदासिन प्रनिविम्बित चैतन्य से तात्पयॆ है । 
                   आत्म छसं ताणी =छ चको मे प्राण -सचार करोगे । मुरतब =मुरतब , तैयार ।
                   राछ = तराव उठाने गिराने का जुलाहो का औजार । सभ्का = सन्ध्या ।
                   तरुणी त्रिया = युवती पत्नी । छोछी =छूँछी, खाली ।
                         सन्दभॆ - कबीरदास कायायोग के द्वारा ज्ञान - प्राप्ति का वणंन करते है ।
                        भावाथॆ - कबीरदास संसारी जीवों को चेतावनी देते हुए केहते हैं कि रे भाई,
                यदि कर सको तो हरि - स्मरण रुपी ताना -बाना (वस्त्र) बनु लो । बाद मे भगवान 
                 (भाग्य) को दोष मत देना इस वस्त्र को बुनते के लिए तुम्हारे पास मानव -शरीर 
                 रुपी करछा है जो विज्ञानमय एव विवेकी है । इस करछे मे पांच प्राण (प्राण, अपान,
                 उदान, समान एव व्यान) रुपी पाँच प्राणी है । इसमे एक आत्मा (प्रतिविम्बित 
                 चैतन्य) भी है, जो साक्षी स्वरुप उदासिन है । ससारी जीव ने अपने प्रकार के
                 विषय-विकारो मे फस कर उसको नष्ट कर दिया है । अगर तुम चौसठ बार (६४
                 घडी) अथाॆत दिन रात भी प्राणायाम करोगे, तब भी उन पाँच प्राणो से तुम्हारा 
                 सयोग नही हो पाएगा । अगर तुम षट्चको में प्राण-सचार रुप बाना बुनोगे तो हे 
                 प्राणी तुझको परम आनन्द की प्राप्ति होगी । (अगर तुम पाँचो प्राखो को उसी 
                 साधना की ओर उन्मुख  करने रुप ताना तानोगे बाद मे मन सहित बुनोगे, तो तुम्हे 
                 परम आनन्द की प्राप्ति होगी) । यही कम है कि पहले ताना तनना चाहिए, बाद मे
                 बाना । अथॊत पहले इन्दियो के विषयों को वश मे करना चाहिए । बाद मे वृतियो 
                 को ईश्वरोन्मख। इस प्रकार के ताने-बाने से हरि-स्मरण रुप वस्त्र बुनने पर स्वयं
                 राम ही पूणॆ तत्व के दशंन रूप पारिश्रमिक देंगे । सामान्य जीवो की दशा यह है 
                 कि राछ भरते-भरते ही सायकाल हो जाता है अथाॆत वुनिया से सम्बन्धित ओजारो 
                 को भरने मे ही समस्त दिन व्यतीत कर देते है । तात्पयॆ यह है कि वे पूजा-पाठ 
                 आदिक वाह्याचार मे ही पूरी आयु व्यतीत कर देते है । उसके बाद सायकाल होते 
                 ही उन्हे अपनी युवती पत्नी का मोह सताने लगता है, और वे सोने की गोद मे
                 लगते है । तात्प्यॆ यह है कि जीवन की सध्या आजाने के पश्चात वे मृत्यु की गोद मे
                 सो जाते है । कबीरदास विचार पूवंक कहते है कि हमने तो ठीक तरह से बुनकर
                 वस्त्र पूरा कर दिया है और अब हमारी नली एक दम खाली है अथॊत हमारे समस्त
                 कमॆ निसशरोप हो गए है और हमारा पुनजॆन्म नही होगा ।