पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७२९

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ग्रन्थावली] [७२५ है,परन्तु निराकार निर्गुण ब्रह्मा का नाम कभी नही लेते है। कबीर केहते है कि {मोक्ष की प्राप्ति तो भगवान के चरणो की कृपा से सम्भव है) भगवान के चरणो का यह यश मै काशी को कभी नही दूगा ,चाहे मुझे नरक मै ही क्यो ना जान पङे ।

       अलंकार-(१) पुनरूक्ति प्रकाश - देवल देवल ।
        विशेष- (१) मुक्ति का श्रेय भगवान को ही है ,काशी को नही । अनन्य भक्त की भाँति कबिरदास अपने इश्टदेव की महिमा को अक्षुप्ण मानते है। वह तो अन्यन्न भी कह चुके है कि ' जो कासी तन तजै कबीरा ,रामहि कहा निहोरा?"
   (२) काशी मे मृत्यु होने पर मुक्ति हो जाती है । इस रूढिबद्ध धारणा का खप्न है।
   
   (३) इस पद मे मगहर के पूर्व काशी -त्याग का उनका संकल्प व्यक्त हुआ है,क्योकि काशी -वास से मुक्ति -लाभ मे इनका विश्वास बिल्कुल नही था ।
                                 
                    (२६१)

तब काहे भूलौ बनजारे,

          अब आयौ चाहै सगि हमारे ॥ टके ॥

जब हम बनजी लौग सुपारी, तब तुम्हे काहे बनजी खारी । जब हम बनजी परमल कसतूरी,तब तुम्हे काहे बनजी कूरी ॥ अमृत छाडि हलाहल खाया , लाभ लाभ करि मूल गँवाया ॥ कहै कबीर हम बनज्या सोयी ,जाथै आवागमन न होई ॥

शब्दार्थ -बनजारे=व्यापार करने वाला ।
संदर्भ-कबीरदास अज्ञानी साधक को एक नादान व्यापाअरी के रूप मे सम्बोधित करते है।

भावार्थ- रे साधक रूपी व्यापारी ,उस समय तो तू इधर-उधर की साधनाओ मे भटका रहा और अब (जीवन के सन्ध्या समय ) तू मेरा अनुयायी धनना चहता है ? जब हम यम-नियम (भक्ति) रूप लोग सुपारी क व्यापार करते थे,उस समय तुम विषय वासना रूप नामक के व्यापार मे उलझे रहे। जब हम ज्ञान और भक्ति रूप कस्तूरी एवं अन्य सुगन्धित वस्तुओ का व्यापार करते थे , तब तुम व्यर्थ की साधनाओ रूप कारी जैसी घास के व्यापार मे फसे रहे । तुमने भक्ति -रूपी अमृत छोडकर विषय वासना रूप विष का पान किया है। तुम्ने अत्यधिक मुनाफो के चक्कर मे की पूजा भी गवाँ दी अर्थात तुमने सांसारिक लाभ के लोभ मे अपने शुद्ध स्वरूप रूप मूल धन को भी खो दिया है। कबीरदास केहते है कि हमने तो भगव्त्प्रेम रूपी उसी व्यापार को किया जिससे संसार मे आवागमन नही होता है अर्थात जिससे फिर संसार मे जन्म नही लेना पडता है।

      अलंकार -(१) रूप्कातिशयोक्ति -लोग सुपारी , खारी , अमल ,अमल कस्तूरी , कूरी , अमृत ,हलाहल मूल ।