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७२९] कबीर

                (ii) अनुप्रास--गगन की पुनरावृत्ति ।                                                                                    विशेष--परम तत्व की अनिवर्चनीयता का सुन्दर वर्णन है । और ठीक ही है--
              जो समझ में आगया वह लाइन्तहा कैसे हुआ ?
              जो जहन में आ गया, वह खुदा कैसे हुआ ?
                          (२६४)
       हमारै कौन सहै सिरि भारा,    
                सिर की सोभा सिरजनहारा ॥टेक ।
             टेढ़ी पाग बड जूरा, जरि भए भसम कौ कूरा.॥
             अनहद की गुरी बाजी, तब काल द्रिष्टि भै भागी ॥
             कहै कबीर राम राया, हरि केै रगेै मूंड मुडाया ॥
      शब्दार्थ--सिरि भारा ==सिर पर बोझा । जूटा==जूडा, केश-विन्यास की पध्दति विशेष । पुरी==तंत्री, बाजा । कालद्रिष्टि==मृत्यु । मूंड मुडाया==बलिदान होने की तैयारी अथवा विरक्त होना ।
      सन्दर्भ - कबीर दाह्याचार का विरोध और भगवत्प्रेम का प्रतिपादन करते हैं ।
      भावार्थ - मै सिर पर पगड़ी आदि का बोझा क्यों सहूं, जब मेरे सिर की शोभा वह सृष्टिकर्ता है । भाव यह है कि पगड़ी इत्यादि धारण करके शिर को सजाना व्यर्थ है । शिर की शोभा तो इसी मे है कि वह भगवान् के सामने झुकता रहे । संवार कर लगाई गई तिरछी पगड़ी और संवार कर बनाया हुआ बालो का जूडा, सब जल कर भस्म का ढेर हो जाते हैं । जब अनहद नाद का बाजा बजता है, तभी मृत्यु भय भागता है । कबीर कहते हैं कि मैने तो भगवान् राम के प्रेम मे अनुरक्त हो कर सब कुछ त्याग दिया है ।
      अलकार--(i) गूढूक्ति--हमारे " भारा ।
                   (ii)अनुप्रास-- सिर सोभा सिरजन हरा ।
      विशेष--(i) लक्षणा--सिरि भार, मूंड मुडाया ।
      (ii)निर्वेद की व्यंजना ।
      (iii)अनहद--देखे टिप्पणी पद सख्या १५७ ।
      (iv)वाहयाचार दंभ लक्षण है । आतंरिक अनुभूति ही काम्य है ।
                     (२६५)
      कारनि कौन संवारेै देहा, 
              यहु तनि जरि बरि हवै है षेहा ॥टेक॥
      चोवा चन्दन चरचत अंगा, सो तन जरत काठ कै संगा॥
      बहुत जतन करि देह मुटयाई, अगिन दहै कै जंबुक खाई ॥
      जा सिरि रचि रचि बांधत पागा, ता सिरि चंच संवारत कागा ॥
      कहि कबीर तब झूठा भाई, केवल राम रहयो ल्यौ लाई  ॥