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शब्दार्थ -- खोहा = धूल। चोवा = सुगन्धित द्रव कई गद्य द्रवों को मिलाकर बनाया जाने वाला सुगन्दित द्रव्य। मुट्चाई = पुष्ट की। जम्बुक = गीदड। चच = चोच।
संगर्भ -- कबीर संसार की असारता का प्रतिपादन करते हैं। भावार्थ -- इस शरीर का साज श्रंगार किस लिए किया जाये? यह शरीर जल भुनकर राख की ढेरी हो जायेगी। जिस शरीर पर सुगंधित द्रव्यों और चंदन का लेप किया जाता है, वही शरीर चिता मे लकडियों के साथ जल जाता है, वह शरीर अग्नि मे जल जाता है अथवा उसको गीदड खाते हैं। जिस सिर पर सजा-सजा कर पगडी बांधी जाती है,उस सिर पर कीए अपने चोच सँवारते हैं(मारते हैं)। कबीर कहते हैं कि हे भाई, तब यह शरीर नाशवान और मिथ्था है। हमे केवल राम के प्रति ही अपनी लौ (अपना ध्यान) लगाना चाहियए। अलंकार -- (१) गुडोक्ति - कारन देहा। (२) अनुप्रारस - चोवा चन्दन चरचत। (३) पुनरुक्ति प्रकाश - रचि रचि। विशेष -- 'निर्वेद' एवं वैराग्य-भाव को मार्मिक व्यंजना है। ( २३६ ) धन धंधा ब्यौहार सब, माया मिथ्यावाद । पांणी नीर हलूर ज्युं, हरि नांव बिना उपवाद ॥टेक॥ इक रांम नांम निज साचा, चिंत चेति चतुर घट काचा ॥ इस भरमि न भूलसि भोली, बिधना की गति है औली ॥ जीवते कू मारन धावै, मरते कौं बेगि जिलावै ॥ जाकै हुहि जम से बैरी, सो क्यू सोवै नीद घनेरी ॥ जिहि जागत नीद उपावै, तिहिं सोवत क्यु न जगावै ॥ जलजत न देखिसि प्रानीं, सब दीसै भूठ निदानी ॥ तन देवल ज्यूं धज आछे, पडिया पछतावै पाछै ॥ रांंम नांम निज सार है, माया लागि न खोई ॥ कोई ले जात न देख्या, बलि विक्रम भोज ग्रस्टा ॥ काहू कै सगि न राखी, दोसै बीसल की साखी ॥ जब हस पवन ल्यौ खेलै पसरचौ हाटिक जब मेल ॥ मानिख जनम अवतारा, नांं ह्वै है बारबारा ॥ कबहू ह्वै किसा बिहाना, तर पखी जेम उडानां ॥ सब आप आप कू जाई, को काहू मिलै न भाई ॥