पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७३४

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मूरखि मनिखा जनम गवाया, बर कौडी ज्यूं डहकाया ॥

    जिहि तन धन जगत भुलाया, जग राख्यौ परहरि माया ॥
    जल अजुरी जीवन जैसा, ताका है किसी भरोसा ॥
    कहै कबीर जग धधा, काहे न चेतहु अघा ॥
    शब्दार्थ -- व्यौहार सब = समस्त क्रिया कलाप । मिथ्यावाद = नाशवान। हबूर = हिलोर, लहर। अपवाद = निंदा। घट = शरीर। काचा = कच्चा। भोली = मूख्ं जीवात्मा। औली = विछित्र, अनोखी। घनेरा = गहरी। जल जन्त = जल जन्तु, जल के जीव। रेवल = देवायत, मन्दिर। धज = ध्वज। हाटिक = स्वर्ण। मानिख = मनुष्य। बिहाना = छोडकर। डहकाया = खो देता है। अजुरी = अजलि। ताका = उसका। गरिहठ = सम्मानित।
    सन्दर्भ -- कबीर जीवन और जगत की निस्सारता का वर्णन करते हैं।
    भावार्थ -- धन, संसार के धन्धे तथा समस्त क्रिया कलाप मायारुप और नाशवान है। ये सब पानी मे उठने वाली लहर के समान क्शणिक है। भगवान के नाम के बिना ये समस्त पदार्थ निंदा के हेतु है। केवल राम नाम ही मूलत सत्य है। रे, चतुर, तू अपने मे विचार करके देखले। यह शरीर कच्चे घडे के समान है। रे भोली जीवात्मा तू इस शरीर को समझने की भूल मत कर। यह भ्रम है। भगवान की लीला बडी ही विचित्र है। यह जीवित जको मारने के लिये उद्यत रहती है। अथवा मार देती है तथा मरते हुए को जीवन दान कर देती है। जिस जीव का यमराज के समान शत्रु हो अर्थात जिसके सिर पर म्रृत्यु सदैव नाचता रहे, वह किस प्रकार निस्चिन्त होकर सो सकता है। जो जागते हुए भी नींद उत्पन्न करता अर्थात ग्यान स्वरूप होते हुए भी अग्यान द्वार ग्रस्त रहता है, उसको सोते हुए से क्यो न जगाया जाए? अर्थात अग्यान द्वारा ग्रस्त प्रानणियो को ग्यान अवश्य दिया जाना चाहिये। गुरुग्यान के द्वारा मोह निद्रा मे ग्रस्त व्यक्ति ग्यान और भक्ति की ओर अग्रसर हो सकते है। प्राणी जल मे छिपे हुए जल जंतुओ को नही देख पाता है और वे जन्तु इस को खा जाते है। उसी प्रकार सांसारिक व्यवहार के पीछे छिपे हुए नाश को प्राणी नही देख पाता है, और अन्तत नाश होने पर संसार का मित्थ्यात्व प्राणी की समझ मे आता है। यह शरीर देवालय की भांति अपने अह्ंकार रूप ध्वजा को फहराता है। शरीर के पदने पर अर्थात मृत्यु के समय केवल पश्चाताप मात्र ही शेष रह जाता है। अतएव व्यक्ति को चाहिय कि वह अपने जीवन काल मे ही ग्यान भक्ति का कुछ आचरण करे। उसे राम रूपी रमायन का पान करना चाहिए। राम-नाम क स्मरण ही वास्तव मे सार तत्व है। माया मे फसकर मनुष्य को अपना जीवन नही खोना चाहिए। सासारिक वैभव एकत्र करने वालो को हमने अन्तकाल मे उस गठरी को अपने सिर पर ले जाते हुए नही देखा है। (सबको खाली हाथ ही जाते देखा है)। बल्कि, विक्रमादित्य भोज जैसे सम्मनिथ राजाओ मे से भी किसी को इस वैभव को साथ ले जाते हुए