पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७३५

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ग्न्थावली ] [७३१ नही देखा। इम धन-दोलत ने किमी का भी साथ नही दिया। राजा भी इसकी साक्षी(गवाही)हौ। जव जीवात्मा प्राणायाम के द्वारा श्न्य तत्व मे लो लगा कर कीडा करता हे,तव उसको सवॅऋ व्याप्त आनन्द रूप सुवणॅ की प्रापित होती है। मनुषय का जन्म वार-वार नही मिलता है। ये जीवन क्षग भगुर है। ये प्राण किसी समय शरीर को छोडकर ऐसे चले जाऐगे। जएसे वश को छोडकर पक्षी उड जाता है। ससार का प्रत्येक प्राणी अपने-अपने रास्ता अकेला ही जाता है। परलोक-गमन के माग मे कोई किसी से नही मिलता है। मूर्ख जीव मनुषय का जन्म(विश्य भाऔग मे) व्यथ ही गवा देता है और कोडी के मूल मे ही उसको खो देता है। जिस शरीर और द्द्न के कारण ससार के लोग अपने आप को भूले हुऐ है और जगत जिसकी रषा मे लीन है, उसी माया का परित्याण करो। यह जीवन हाथ की अजलि मे भरे हुऐ पानी के समान क्षण-स्थाथी है। इसका क्या भ्ररोसा? कबीर कहते है कि यह ससार व्यथ का प्रपच है। रे अज्ञानी जीव, तू क्यो नही चेतता है-होश मे आता है?

    अल्न्कार- १) छेकानुप्रास-धन धधा, माया मिय्यावाद।
           २)कछ कीजै,राय रसायन,जगत जग। जल जीवन। म्र्र्ख मनिषा।
           ३)उपमा-हल्र्र ज्यू। जम से। देवल जू। पखी जेम। कोडी ज्यू। जाल अजुरी जैसा।  
           ४)वृत्यानुप्रास-चित चेति चतुर, भरमि भूलसि भोली। पडिया पछ्तावै पाछै। 
           ५)शलेशपुश्ट रूपक-घट। 
           ६)वऱोतिक-बयू  घनेरी। तिहि जगाव।
           ७)विरोघाभास-जगत नीद उपाव। 
           ८)हषटान्त-जलजत   निदानी। 
           ९) रूपक-राम रसाइन।
           १०)गूढॉथ्क ताका भरोस
    विशेव-१)जीवन और जगत की असारता का प्रतिपाद्न है।
         २)'निवद' की मामिक व्यजना है।
         ३)जीवन की क्षणिकता को व्यत्क करने के लिए जल अजुरी जीवन जैसा बडी ही साथक उपना का प्रयोग किया गगा है। 
         ४)ह्स, पवन,हारिक-नाथ सप्रदाय के प्रतीको का प्रयोग है।
         ५)मानेख जनम तन पावा। सुरदुरलभ सटू गन्यन गावा।
                                          (गोस्वामी तुलसीदास)