यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
ग्रंथावली ]
भावर्थ- रे चित तुम साव्धान होकर उस परम तत्व का ध्यान करो जिसके चिन्तन से अपने पराए
का भेद नष्ट हो जाता है| मेरे हृद्य मे भगवान ने वह ज्ञान उत्पन्न कर दिया है| जिससे सम्पूण माया मोह का बन्ध्न नष्ट् हो गया है| उस परम तत्व के साक्षात्कर की अवस्था मे न नाद ओर न बिन्दू है| उस अवस्था मे नर, नारी, कुल एव जाती किसी प्रप्रकार का भेद नही है। ( वह सम अवस्था है।) कबीर कह्ते है कि उस परम तत्व का साक्षात्कार सब सुखो का देने वाला है। उस परम तत्व को ज्ञानेऩ्द्रियो दारा नही जाना जा सकता है, उसको स्थूल दृषिट द्वारा देखा नही जाना जा सकता है, उसको स्थूल स्थूल दृषिट दारा देखा नही जाना जा सकता है, सामान्य बुधि दारा उसका निरुपण नही किया जा सकता है क्यो कि वह पूर्ण || एक्त्व ( अभेद को प्राप्त है, और वही सबका सिरजनहार हैं।
अलंकार- अनुप्रास- चित चॆति च्यति, अविगत अलख अभॆद। विशॆष - (१) परम तत्व एव उसकी अनुभूति अनिवचीय है।
(११) ’परा तत्व’ के साक्षात्कार की अवस्था मे नाद और बिन्दु के भी न होने की बात कह कर कबीर ने परम तत्व को ’कायायोग’ दारा प्राप्त अवस्था से भी अतीत बता दिया है। (२६९)
सरवर तटि ह्सणी तिसाई जुगति बिनां हरि जल पियां न जाई ॥ टेक॥ पीया चाहै तौ लै खग सारी, उडि न सकॆ दौऊ पर भारी ॥ कु भ लीयै ठाढी पनिहारी, गुन बिन नीर भरै कैसै नारी॥ कहै कबीर गुर एक बुधि बताई सहज सुभाइ मिलै राम राई॥
शब्दाथ-तिसाई=तषिता, प्यासी। खग=पक्षी। ससिनी = आत्मा। जुगति युत्कि, साधना, भक्ति। पीया= पीना। सारी = गमन करने वाला। कुभ= घडा । गुण = नाम स्मरण।
भावाथ - आत्मानन्द रुपी तालाब के तट पर बठी हुई जोवात्मा रुपी ह्सिनी प्यासी हैं| इसमें अस्चर्य की कया बात है? साधना रूपी युक्ति के बिना परमानन्द रूपी जल का पान संभव नहीं होता है| रे जीवात्मा रूपी ह्सिनी, यदि तु उस जल को पीना चाहती है, तो तू वहा तक गमन कर| परन्तु वस्तु स्तिथि यह है द्वैत भाव एवं सशय के कारण तेरे दोनों पख उड़ने में असमर्थ है| कुंडली रूपी पनी हारिन साधना रूपी घडा लिए खडी है, परन्तु भगवान के नाम स्मरण रूपी रस्सी के अभाव में वह अमृत- जल नहीं भर सकती है| कबीर कहते है की मेरे गुरु ने इस अनंदामृत पान की भक्ति रूपी एक युक्ति बता दी है| उसी के द्वारा भगवान राम सहज भाव से प्राप्त हो गए है| अलंकार - (१) रूपकातिशयोक्ति - सम्पूर्ण पद| (११) विरोधाभास - सरवर ----- ससाई|