पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७३९

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ग्रन्थावली ]

अलकार --(1) अनुप्रास- भरथरी,भूप भया, बिरह वियोग बनि बनि वाकी, गॉव गढ,गूडर|

     (ll) पुनरूक्ति प्रकाश - बनि बनि, हरि हरि|
     (lll)रुपक--रमैण रभा|

विशेष--(1)राम भक्ति के प्रति आस्था स्पष्ट हैं| (ll) कबीर पौराणिक आख्यानो के मह्त्व को स्वीकार करते हैं| (lll) भरथरी-यह उज्जैन के राजा थे जिन्हे अपनी रानी पिंगला का चरित्र देखकर वैराग्या उत्पन्न हो गया था| अतएव यह अपना सब राज-पाट अपने भाई विक्रमादित्य को देकर योगी हो गए थे | यह बडे ही विद्वान् थे | इनके द्वारा लिखे हुए तीन शतक-श्रृंगार शतक, नीति शतक एव वैराग्य शतक -बहुत प्रसिद्ध हैं| (iv)गोरखनाथ -यह नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं नौ नाथो में सर्वप्रथम मानें जाते हैं| कबीर ने अनेक स्थलों पर इनको सदगुरु के रूप में इनका उल्लेख किया है| कहते हैं कि इन्होंने अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ का उद्धार किया था| कहा भी जाता है-"जाग मच्छेन्द्र गोरखा आया|"

  गोरखनाथ के समय के सम्बन्ध में विद्वानों मे मतभेद है| उनका समय विक्रम की १० वी और १३ वी शताब्दी के बीच माना जाता है|
                  राग केदारी 
                  (३००)
      सार सुख पाईये रे,
             रगि रमहु आत्मांराम||टेक ||
      बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार |
      घर बन तत समि जिनि किया, ते बिरला संसार ||
      का जटा भसम लेपन किये,कहा गुप्त मै बास |
      मन जीत्यां जग जीतिये, जै विषया रहै उदास ||
      सहज भाइ जे उपजै,ताक किसा मांन अभिमान |
      आपा पर समि चीनियै, तब मिलै आतमांरांम ||
      कहै कबीर कृपा भई, गुर ग्यांन कहां समझाइ |
      हिरदै श्री हरि भेटियै, जे मन अनतै नहीं जाइ ||
     शब्दार्थ -सार=सच्चा |तत=इसलिए |समि=समाना विषया=विषयो के प्रति|
     सन्दर्भ-कबीरदास अ त साधना का प्रतिपादन करते हैं।
     भावार्थ- रे जीव, अपने आत्मांराम के प्रेम में रग कर उसी में रम जाओं और इस प्रकार वास्तविक सुख की प्राप्ति करो । अगर मन के विकार(काम,क्रोध,लोभ,मोह एवं मत्सर) नहीं छूटते हैं, तो सन्यासी बन कर वन मे जाकर रहने से