पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७४०

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७३६] [कबीर क्या लाभ हो सकता है? ऐसे व्यक्ति संसार में बहुत थोड़े ही है जिन्होंने सच्ची साधना की दृष्टि से घर को ही वन के सामान कर लिया है । जटा रखने, भस्म रमाने अथवा गुफा में वास करने से कोई लाभ नहीं होता है । यदि विषयों के प्रति उदास रह कर मन को जीत लिया जाए, तो संसार को जीत लिया जाता है । जिसके ह्रदय में भगवान के प्रति स्वाभाविक प्रेमानुभूति उत्पन्न हो जाती है अथवा सहज की अनुभूति जाग जाती है,वे मानापमान के परे हो जाते हैं-उनको न किसी प्रकार का अहंकार रह जाता है और न उन्हें किसी प्रकार के मन-मर्यादा की इच्छा शेष रह जाती है। जब व्यक्ति अपने और पराए को सामान समझने लगता है, तभी उसे आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार होता है-अर्थात समबुद्धि के द्वारा ही आत्मदर्शन सम्भव है । कबीर कहते हैं कि हमारे ऊपर तो गुरु की कृपा हो गई है । उन्होंने हमे आत्म-ज्ञान समझा दिया है । अगर मन इधर-उधर न भटके तो ह्रदय में ही भगवान के दर्शन हो जाते हैं ।

   अलंकार -(1)वक्रोक्ति-काबास ।
        (ll)अनुप्रास-जीत्या जग जीतिये ।
        (lll)सभग पद यमक-भाव अभिमान ।

विशेष-औपनिषदिक ज्ञान का प्रभाव स्पष्ट है । उपनिषद् और गीता में अनेक स्थानों पर समबुद्धि का प्रतिपादन किया गया है तथा मानापमान रहित होना सफल साधक का लक्षण बताया गया है । यथा - देखे श्रीमदभगवदगीता के ये वचन-

         दु खेदवनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृह ।
         वीतराग भयक्रोध स्थितघीर्मू निरूच्यते ।             (७/५६)

तथा- निर्मको निरहंकार स शान्तिमधिगच्छति । (२/७१) तथा- "आत्मवत् सर्वभूतेषु य पश्यति स पश्यति ।"

                               -श्रीमदभगवदगीता 
                           (३०१)
          हैं हरि भजन कौ प्रवांन ।
          नींच पांवै उच पदवी,वाजते नीसांन ॥ टेक ॥
          भजन कौ प्रताप एसो, तिरे जल पषान ।
          अघम भील अजाति गनिका,चढ़े जात बिवांन ।
          नव लख तारा चलै मंडल, चलै ससिहर भांन ।
          दास धूकौ अटल पदवी, रांम को दीवांन ॥
          निगम जाकी साखि बोलै, कहै संत सुजांन ।
          जन कबीर तेरी सरनि आयौ राखि लेहु भगवांन ॥
  शब्दार्थ - प्रवान=प्रमाण । नीसान=निशान,डंका ।  पाषान=पत्थर

धू =ध्रुव । दीवान=शाहिदरबार,प्रधानमंत्री ।

   संदर्भ-कबीरदास भगवदभजन के प्रभाव का वर्णन करते हैं ।