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[कबीर
चढाई के समय सागर पार करने के लिए सेतु बाँधा था । यह राम की कृपा द्वारा ही सम्भव हो सका था ।
(१११)यह पद ज्यो का त्यो सूरसागर में भी मिलता है । अन्तर केवल 'कबीर' और 'सुर' का है । कबीर ने लिखा है कि 'जन कबीर केरी सरनि आयो',और सुर लिखते है कि,सुर हरी को सरल आयो ।देखिये - हे हरि भजन को परवान । नीच पावै उँच पदवी बाजते निशान । भजन को परताप ऐसे जन तरैंपाषान । अजामिल और भील गणिका चढ़े जात विमान । चलत तारे सकल मण्डल चलत शशि अरु भान । भक्त घ्रुव को अटल पदवी राम के दीवान । निगम जाको सुयश गावत सुनत सैत सुजान । सूर हरि को शरण आयो राखि ले भगवान । (सुरसगतिसार -पद ७०) चलौ सखी जाइये तहां, जहां गय पाइयै परमांनद ।टेक ॥ यहु मन आमन धुमनां, मेरो तन छीजत नित जाई । च्यतामणि चित चोरियौ, तथै कुछ न सुहाई॥ सु नि सखी सुपनै की गति ऐसी, हरि आए हम पास ॥ सोवत ही जगाइया, जागत भए उदास॥ चलु सखी विलम न कीजिये, जब लग सास सरीर । मिली रईये जगनाथ सू,यू कहै दास कबीर । शब्दार्थ -आमन =आने =जाने । घुमना =घुमने वाला । छीजे=क्षीण होता है । सन्दर्भ-कबीरदास मन को भगवद प्रेम के लिए प्रेरित करते है। भावार्थ - हे जीवात्मा (सखी)। इस संसार को छोड़कर वहँ चलो जहांँ परमानन्द की प्राप्ति होती है। यह मेरा मन तो अत्यन्त चचल - यह निरंतनर आने जाने वाला और घुमने वाला है(कभी अनुकूल रहता है और कभी प्रतिकूल हो जाता है ।)और यहाँ शारीर निरंतर क्षीण होता जाता है ।चिंतामणि स्वरूप भगवान ने मेरा मन चुरा लिया है । इस कारन मूभ्कको ससार की कोई वस्तू अच्छी नही लगती है ।रे सखी सुन ,स्वप्न में कुछ एेसा हुआ कि भगवान मेरे पास आए और उन्होंने मुभ्तको सोते से जगा लिया । परन्तु जगते ही मेरा मन उदास हो गया ।रे सखी , जन तक इस संसार में प्राण हैं,तब तक जल्दी से यह कम कर