पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सो| देर मत करो | भगवान से मिलने के लिए चल पडो | कबीर कहते है कि प्राण रहते हुए जल्दी ही भगवान के साथ सदाकार होने का प्रयत्न करना चाहिए |

 अलंकार-(१) सोवत  उदास-इस  स्वपन  इत जगत मे अचानक भग- जाग गया और ऐसा प्रभिता हुआ कि पति रुप भगवान मेरे समीप ही आ गए थे |भगवान के इस  प्रकार आगमन से अज्ञान की निद्रा  समाप्त हो गई|यह वोध  हुआ कि मै भगवान से 

विछुड कर ही इतने दिनो से भटक रही थी|इस आत्मग्लानि के कारण मन का उदास हो जाना स्वाभाविक ही है| यह कहिए कि आत्मवोध के फलस्वहप मेरा मन ससार के प्रति उदासीन हो गया| (11)स्वपन और जागरण के रुक ?कवि ने सौकिक स्तर के दाम्पत्य प्रेम के बिम्बो द्वारा अलौकिक एव र ह स्यबादी प्रेम ज्ञान एव भात्त्त्ति की समनिब्त् हूदय एव रहस्यवादी एव व्यजना की है| (111) समभाव देखे- चकई ऱी!चलि चरन-सरोवर जहाँ नहि प्रेम बियोग| निसि दिन राम नाम अम्रुथ रस पीजे| जा वन राम नाम अम्रुथ रस श्रवण पाय भूरि लीजे |(सुरदास) (1v)सोवत उदास -इसी कोटी के लौ लौकिक दाम्पत्य प्रेम की अभि- व्यक्ति देखिए- हौ सपने गई देखन कौ,कहू नाचत न द -जमोम्ति को नट| वा मुसकाय के भाव बताय के ,मेरोई खैचिखरो पकरो पट | तौ लगि गाइ बगाइ उठी,कहि देव,बघुनि,म थ्थौ दधि को मट | जागि परी तौन कान्ह कहू,न कदब,नकुज ,न कालिन्दी को त तट |(देव)

                 (३०३)

मेरे तन मन लागी चोट सठौरी || बिसरे गयान बुधि सब नाठी, भई बिकल मति बौरी|| टेक| देह बदेह गलित गुन तीनू , अचत अच्ल भइ ठौरी| इत उत जित कित द्वादस चितवत , यहु भई गुपत गौरी|| सोई पै जानै पीर हमारी,जिहि सरीर यहु ब्यौरी | जन कबीर ठग ठग्यौ है बापुरौ,सुनि समानी त्यौरी|| शब्दाथ-सठौरी-सही स्थान| ज्ञान-सामान्य ज्ञान |नाठी=नष्ट् हो गई | टगौरी= जादु| ब्यौरी=विवृत,व्यक्त |सुनि =शून्य| त्यौरी=ञिकुटी सन्दभ् -कबीरदास ज्ञान दशा का वणन करते है|

भावाथ_मेरे शरीर और मन पर (गुरु उपदेश एव प्रभु की) चोट   ठीक्