पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७४४

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[कबीर स्थान(मर्म) पर लगी है | इससे मेरी समस्त लौकिक ज्ञान,एव विवेक नष्ट हो गए है और मेरे बुध्दि प्रभु के विरह मे व्याकुल होकर पागल हो गई है|मेरी देह विदेह हो गई है अथत् इस शरीर एव उस के सुखो के प्रति मेरी आसक्ति समाप्त हो गई है और तीनो गुण समाप्त हो गए है |जो अवयव चल रहे थे, वे जहा के तहा स्थिर हो गए है अथ्रात मेरे शरीररागौ ने कय्र करना बन्द कर दिया है शरीर के बारह अगो की ञियाएँ अस्त-व्यथा को समभ सकता है जिसके शरीर मे यह पीडा व्यक्त हुई हो अथाथ जिस को यह व्यथा भोगनी पडी हो|कबीर दास कहते है कि मै भक्त तो प्रभु प्रेम के जादू रुपी ठग द्वारा ठग लिय गया हूँ और मेरी ञिकुटि शून्य मे लग गई है, मेरी सगस्त चितवृतिया अन्तमुखी हो गई

है|

अलकार - (1) सभग पद यमक - देह वदेह |

       (11)विरोधाभास- चलत अचल भई |
       (111)पद मै ञी  इत उतजित कित |
       (1v) रुपक -ठग |

वि शे ष -(1)बारह अग पाँच ज्ञानेन्द्रियो, पाँच कमेन्द्रियो, मन एव बुद्धि |

       (11)तीन गुण--सत्व  गुण, रजोगुण  तथा तमोगुण|
       (111)ञिकुटी - देखे  टिप्पी पद स० ३,४,७|
       (1v)शून्य-देखे  टिप्पी पद स० १६४|
       (v)सोई वै-यौरी "जागे लगे सोई जाने विथा" अथवा दरद न जाने जाके  फटी बिवाई ना | 
       (v1) सोई व्यौरी  ईशवर  प्रेम एव ज्ञान  की दशा मे अवघूत व्यक्ति की सासारिक 

विषयो प्रति आसक्ति नही रह जाती है |इस से वह ससार के व्यवहार मे पदु न रहकर पागल एव भूख्र प्रतीत होते है |

                    (३०४)

मेरी अंखिया जा न सुजान भई| देवर भरम सुसर सग तजि करि हरि पीव तहा गई ||टेक|| बालपने के करम हमारे,काटे जानि दई | वाह पकरि करि कृपा कीन्ही, आप समीप लई || पानी की बूँद थे जिनि प्यड साज्या,ता सगि अधिक कर ई | दास कबीर पल प्रेम न घटई,दिन दिन प्रीति नई || शब्दाथ - जानि=जान्वूभ कर|दई = भगवान | व्यड=शरीर| साजा=बनाया| सन्दभ- कबीर ज्ञान दशा का वणन करते है | नाबाथ-भगवान के प्रेम मे अनुरक्त जीवात्मा कहती है कि प्रभु-दशन्