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ग्रन्थावली] [७४१

के प्रभाव से मेरी दृष्टि अब विवेक पुर्ण एवं सुविज्ञ हो गई है । अर्थात अब मैं अपने-पराए को पहिचानने लगी हूँ। मैं भ्रम रूपी देवर और अज्ञान श्वसुर का साथ छोडकर अपने पति भगवान के पास पहुँच गई हूँ । बाल्यावस्था में अथवा अज्ञानावस्था में किए हुए मेरे कर्मों के दोपों को भगवान ने जानबूझ कर समाप्त कर दिया है । उन्होने मेरे ऊपर कृपा की और मेरी बाँह पकड कर अपने पास स्थान दे दिया है । जिस भगवान ने पानी की एक बूँद (वीर्य ) द्वारा मेरे इस शरीर का निर्माण किया, उन्ही भगवान के साथ मैं अब रमण करने लगी हूँ ।दास कबीर कहते हैं कि भगवान के प्रति मेरा प्रेम एक क्षण के लिए भी कम नहीं होता है । उनके प्रति मेरी प्रीति दिन प्रतिदिन नवीन ही बनी हुई है । अर्थात् उसमे मुझको नित्य नए आनन्द की प्राप्ति होती है ।

         अलंकार--(१)रुपक--देवर भरम ।
                 (२)पुनरूक्त्ति प्रकाश--दिन दिन ।
         विशेष   (१) रहस्यवादी शैली पर दाम्पत्य प्रेम का सुन्दर चित्रण है।
         (२)प्रेम भक्ति एवं ज्ञान दशा का मार्मिक वर्णन है ।
         (३)नाथ सम्प्रदाय के प्रतीको का प्रयोग है ।
         (४)भगवान की कृपा का उल्लेख 'पुष्टि भक्ति' के प्रभाव का                         व्यजक है । 
                         ( ३०५ )

हो बलिया कब देखोगी तोहि । अह निस आतुर दरसन कारनि, ऐसी ब्यापै मोहि॥टेक ॥ नैन हमारे तुम्ह कू चांहैं , रती न मानै हारि । बिरह अगिन तन अधिक जरावै एसी लेहू बिचारि ॥ सुनहु हमारी दादि गुसाई,, अब जिन करहु बधीर । तुम्ह धीरज मै आतुर स्वामीं काचै भाडं नीर ॥ बहुत दिनन कै बिछुरै माधौ, मन नही बांधै धीर । देह छतां तुम्ह मिलहु कृपा करि आरतिवत कबीर ॥

शब्दार्थ-- दादि = दाद, चिनती। बधीर = बधिरता, अनसुनी । भाडै = बर्तन। छता = अछत, रहते हुए । आरतिवत = दुखी । सन्दर्भ---कबीर की जीवात्मा प्रभु-दर्शन के लिए अपनी आतुरता व्यक्त करती है।

भावार्थ-- हे भगवान! मैं आपकी बलिहारी जाती हूँ । मै आपके दर्शन कब कर सकूँगी ? आपकी विरह में वियोग व्यथा मुझे इतना सता रही है कि तुम्हारे दर्शनो के लिए मैं दिन-रात व्याकुल रहती हूँ । मेरे नेत्र केवल तुम्हे ही देखना चाहते हैं और इसमे वे रत्ती भर भी पीछे हटने को तैय्यार नहीं है । बिर-हाग्नि मेरे शरीर को बहुत जलाती है । इस बात पर आप विचार करलें (कही ऐसा न हो कि मैं इसके कारण जल कर मर जाऊँ और आपको दर्शन न देने का पछतावा