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७४२ ] [कबीर

हो)। हे स्वामी, हमारी विनती सुन लीजिए तथा अब अधिक अनसुनी मत कीजिए।हे भगवान! आप तो धैर्य-स्वरुप है परन्तु मैं आतुर हू--दर्शन करने के लिए उतावली हो रही हूँ । मेरे प्राण इस शरीर के बाहर चाहे जब निकल सकते हैं जिस प्रकार कच्चा घडा चाहे जब फूट सकता है और उसमे भरा हुआ पानी बाहर निकल सकता है। हे माधव, तुम मुझसे बहुत दिनो के बिछुडे हुए हो, अर्थात् मे तुमसे अनेक जन्मो पूर्व बिछुडी थी। अब मेरा मन अधिक धैर्य धारण नही कर सकता है । कबीरदास की जीवात्मा कहती है कि मै बहुत ही दु:खी हूँ ।आप शरीर मे प्राण रहते हुए मुझसे मिलने की कृपा करे-अर्थात् इस जीवन मे ही मेरा उद्धार करने की कृपा करे ।

        अलंकार-(१)गूढोत्कि हो तोहि ।
        (२)रुपक--विरह अगिन ।
        (३)उपमा काचै भाडै नीर ।
        विशेष--(१)भगवत्प्रेम का बिम्ब-विधायक एव मर्म स्पर्शी वर्णन है ।  
        (२)इसमे सूफी शैली की दाम्पत्य प्रेम परक विरह-व्यथा की तीव्रता की सफल अभिव्यक्ति हुई है ।
        (३)मिलन की आतुरता कर्ब र ने कई स्थानो पर व्यजित की है। 'कबीर' शरीर रहते ही भगवान के दर्शन की इच्छा करते हैं। इसका अर्थ है कि वह मोक्ष की इच्छा न करके जीवन मुक्त होना चाहते है। यह आकांक्षा सगुण भक्तो जैसी है।
                         (३०६)
         वै दिन कब आवेगे माइ।
         जा कारनि हम देह धरी है, मिलिवो अंगि लगाइ॥टेक॥
         हौं जांनूं जे हिल मिलि खेलूं, तन मन प्रांन समाइ ।
         या कांमना करौ परपूरन,समरथ हौ रांम राइ ॥
         मांहि उदासी माधौ चाहै, चिपबत रैंनि बिहाइ ।
         सेज हमारी स्यघ भई है, जब सोऊ तब खाइ ॥
         यहु अरदास दास की सुंनिये, तन की तपनि बुझाइ ।
         कहै कबीर मिलै जे सांई मिलि करि मगल गाइ ॥
         शब्दार्थ-स्यघ=सिंह,वाघ। अरदासि=अर्जी,प्रार्थना।
         सन्दर्भ-कबीर की प्रभु-मिलन की आतुरता का वर्णन करते हैं।
         भावार्थ-री सखि । वह दिन कब आएगा जब मैं इस शरीर धारण करने के उद्देश्य को पूरा कर सकूँगी ? जिस भगवान की प्राप्ति के लिए यह मानव शरीर मिला है, उससे अग से अग मिलाकर कब मिलना हो सकेगा ? मेरे मन की यह तीव्र आकाक्षा है कि मैं अपने पति भगवान के साथ हिल-मिल कर खेलू और अपने तन,मन प्राण को पति रुप परमेश्वर मे समाहित कर दू। हे स्वामि राम। आप सब तरह समर्थ हो। मेरी मनोकामना को पूर्ण कर दो । में इतने दिनो तक