पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७४९

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ग्रन्थावली ] [ ७४५

      (२)आन न भावै--कुछ आलोचको ने 'आन' का अर्थ'अन्य' करके इस वाक्याश का अर्थ इस प्रकार किया है--मुझे अन्य किसी की उपासना अभीप्सित नही है| हमारे विचार से"नीद न आवै" के साथ "आन न भावै" का अर्थ 'अन्य अच्छा नही लगता है," ही अर्थ उपयुक्त होना चाहिए| समभाव की अभिव्यक्ति अन्यत्र देखिए--
        घान न भावै नीन्द न आवै, विरह सतावै मोइ|
        खायल-सी घूमत फिरु दरद न जाणे कोइ|   (मीराबाई)  
     (३)ज्यू कामी कौ काम पियारा--तुलनात्मक दृष्टि से देखिए---
        कामिहि नारि पियारि जिमि,लोभिहि प्रिय जिमि दाम|
        तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम|
                                      (गोस्वामी तुलसीदास)
     (४)है कोउ"""" सुनाइ रे--तुलना करे--
        प्रीतम कू" पतियाँ लिखू" रे कउवा! तु ले जाइ|
        जाइ प्रीतम सू ये कहै रे, विरहणि धान न खाइ|
         *                *              *
    वेगि मिलौ प्रभु भ्र्तर जामी, तुम बिन रह्यौ न जाइ|(मीराबाई) 
                        (३०८)
   माधौ कब करिहौ दया|
   कांम क्रोध अहंकार ब्यापै, नां छूटे माया|| टेक ||
   उतपति ब्यंद भयौ जा दिन थै,कबहूं सच नहीं पायौ|
   पच चोर सगि लाइ दिए हैं, इन सगि जनम गंवायौ||
   तन मन डस्यौ भुजग भामिनी, लहरी वार न पाप|
   सो गारडू मिल्यौ नही कबहू,पसरयौ विष बिकराला||
   कहै कबीर यहु कासू कहिये, यह दुख कोइ न जानै|
   देहु दीदार बिकार दूरि करि तब मेरा मन मानै||
   शब्दार्थ--साँच=सुख| भुजग=सर्प| भामिनी=सुन्दरी| गारडू=सर्प का जहर उतारने वाला|

विकरारा=विकराल, भयंकर|दीदार=साक्षात्कार-दर्शन|

   सन्दर्भ- कबीर एक भक्त की तरह भगवान की तरह से दर्शन देने की प्रार्थना करते है|
   भावार्थ--हे भगवान| आप मेरे ऊपर दया करके मुझको कब दर्शन देंगे ? काम क्रोध और अहंकार ने मुझको घेर रखा है और माया मुझसे छोडते नही बनती है| जिस दिन से बिन्दु(पिता के वीर्य)से मेरा जन्म हुआ है, उस दिन से मुझे कभी भी सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं हुई है| पाँच चोर(काम,क्रोध,लोभ,मोह एव मत्सर)जन्म से मेरे साथ लगे हुए है| इनके साथ मैंने अपना सम्पूर्ण