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७४६] [ कबीर
जीवन व्यर्थ ही व्यतीत कर दिया है| सुन्दरी नारी रुपी साँप ने मेरे शरीर और मन को डस लिया है और काम रुपी विष की लहर ऐसी फैल रही है कि उसका कोइ आदि अन्त(और छोर) नही है| उस विष को दूर करने वाला कोई भी गुरु रुप गारुडी अब तक नही मिल सका है| यह भयानक विष मेरे शरीर मे फैल गया है| कबीर कहते है कि मैं दुख का वर्णन किससे करुँ| मेरे इस दुख को कोइ नहीं जानता है| हे भगवान मेरे समस्त अवगुणों को दूर करके मुझे आने दर्शन दीजिए| तभी मेरा मन सुख-शांति का अनुभव कर सकेगा|
अलंकार--(१)रुपक--भुजग भामिनी, गुर गारडू| (२)छेकानुप्रास-- काम क्रोध| (३)रुपकतिशयोक्ति--चोर ,लहरी,विष| विशेष--(१)इसे हम विनय का पद कह सकते है| तुलना करे-- नाचते ही निस दिवस मरयो| तब ही तै न भयो हरी| थिर जब तै जिव नाम घरयो| * * * जेहि गुन ते बस होहु रीझि कोई, सो मोहि सब बिसरयो| तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु,दीजै रहन परयौ| (गोस्वामी तुलसीदास) (३०९) मै जनभूला तू समझाइ चित चंचल रहै न अटक्यो,विषै बन कूं जाइ||टेक|| ससार सागर माहि भूल्यौ,थक्यौ करत उपाइ| मोहनी माया बाघनी थै,राखि लं राम राइ|| गोपाल सुनि एक बीनती,सुमति तन ठहराइ, कहै कबीर सुनि यहु काम रिप है,मारै सबकू ढाइ|| शब्दार्थ--वाघनी=शेरनी| राखि लै= रक्षा करो| संदर्भ-कबीर भगवान से रक्षा की प्रार्थना करते है| भावार्थ-- हे भगवान| मै तेरा यह सेवक माया-मोह मे पडकर अपने स्वरुप को भूल गया हूँ| तुम मुझे विवेक-बुद्धि दो| यह मेरा चचल चित्त तुझसे अटकता नही है अर्थात् तेरे प्रति अनुरक्त नही होता है और वह बार बार विषय रुपी वन की और भा: कर जाता है| मै इस ससार रुपी सागर मे भटक गया हूँ| उध्दार की चेष्टा करते करते थक गया हूँ| हे राजा राम |मोहिनी माया रुपी बाघिन से मेरी रक्षा कीजिये| हे गोपाल, मेरी एक विनती सुन लीजिए| मेरे मन मे सुबुधि को स्थिर कर दो अथवा मुझको स्थिर बुद्धि प्रदान कर दो|कबीर कहते हैं