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ग्रन्थावली] [ ७४७

कि यह काम रूपी शत्रु हम सबको पछाड कर नष्ट कर रहा है।(इसी से बचाने की आवश्यकता है।)
    अलंकार-(१)रूपक- विषै वन, ससार सागर, माया बाघिनी। काम
              रिपु ।
           (२)परिकराकुर-गोपाल।
           (३)छेकानुप्रास- चित चचल, ससार सागर, मोहिनी माया, राम राइ।
    विशेष-यह विनय भक्ति का पद है।
                      (३९०)
     भगति बिन भौजलि डूबत है रे।
     बोहिथ छडि बैसि करि डूडै, बहुतक दुख सहै रे॥ टेक॥
     बार बार जम पे ढहकावैं, हरि को ह्वौन रहै रे।
     चोरी के बालक की नाई, कासू बात कहै रे ॥
     नलिनों के सुवटा की नाई, जग सू राचि रहै रे।
     बसा अगनि बस कुल निकसै, आपहि आप दहै रे ॥
     खेवट बिना कवन भौ तारे, कैसे पार गहै रे ।
     दास कबीर कहै समझावै, हरि की कथा जीवै रे ॥
     राम को नाव अधिक रस मीठाँ, बारबार पीवै रे ॥
  
   शब्दार्थ-भौजलि भवजल,ससार सागर ।बोहिथ= बोहित,जहाज।

डूडँ= डूडँ पर, ठूँठ पर,लकडी के लठ्ठे पर ।ढहकावैं =धोखा खाता है, ठगा जाता है। राचि= आसक्त । बसा अगनि= बासो की रगद उत्पन्न होकर वन मे लगने वाली अग्नि।

   संदर्भ- कबीरदास राम की भक्ति का पतिपादन करते है।
   भावार्थ- रे जीव । तू भगवान की भक्ति के बिना इस ससार सागर मे डूब रहा है। तूने   भक्ति रूपि जहाज को छोडकर अन्य साधन रुपी काठ के लट्ठो पर बैठकर इस भवसागर को पार करने का विफल प्रयत्न किया । इसी कारण तुझको अनेक दुख सहने पडे है । तू बार-बार यमराज के द्वारा ठगा जाता है अर्थात् बार बार जन्म-मरण के चक्कर मे पडता है, परन्तु भगवान का भक्त होकर नही रहता है ।दासी पुत्र की भाँति तू किसी को भी अपना पिता नहीं कह सकता है अर्थात् विभिन्न साधनाओं मे भटकने वाला व्यक्ति किसी एक साधन के प्रति निष्ठावान नही रह पाता है। यदि बाप के स्थान पर बात पाठ हो, तो इस पक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा । तूने भगवान की भक्ति से जी चुराया है। तेरी हालत उस बालक की भाँति है जो चोरी करता है और लज्जा के कारण किसी के सामने मुँह् नहीं खोल पाता है । हे जीव! काठ की नली पर क्रीडा करने वाले तोते की भाँति तू इस माया मय जगत के प्रति आसक्त बना हुआ है । जैसे बटवाग्नि वासो की ही रगड से प्रकट