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७४८ ] [ कबीर

होती हे और उन्ही को भस्म कर देती है, उसी प्रकार कामग्नि प्राणी मे हो उत्पन्न होती है और उसी को नष्ट कर देती है । भगवान रूपी केवट के बिना इस ससार रूपी सागर से कोई पार नही कर सकता है। बिना भगवान के तू किस प्रकार पार जा सकेगा? कबीरदास समझकर कहते है कि भगवान के गुण-गान के सहारे ही सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया जा सकता है। राम के नाम-स्मरण द्वारा प्राप्त होने वाला रस बडा ही मीठा होता है, उसको बारम्बार पीना चाहिए अर्थात् भगवान का नाम-स्मरण निरन्तर करते रहना चाहिए ।

       अलंकार-(१) रूपक- भौजलि,भौ ।
              (२) रूपकातिशयोक्ति--बोहिथ, डूडै, खेवट ।
              (३) पुनरुक्ति प्रकाश- बार-बार ।
              (४) उपमा--बालक की नाई, सुवटा की नाई ।
              (५)दृष्टान्त-- दसा"" दहै रे ।
              (६) वक्रोक्ति--कवन"" गहै रे ।
       विशेष--(१) इस पद मे कबीर की भक्ति-भावना व्यक्त है ।
       (२) नलिनी को सुवटा-- तोतो को पकडने के लिए शिकारी बाँस की पोनिया लटका देते है । जैसे ही तोता पीनी पर बैठता है, वैसे ही पीनी घूम जाती है और तोते का सिर नीचे और पाँव ऊपर हो जाते है । इस पीनी को ही नलिनी कहते है । तोता पीनी को छोडता नही है और डर के मारे वही लटकता रहता है ।इसी प्रकार जीव भी उद्धार की  सामर्थ्य होते हुए भी ससार के प्रति आसक्त बना रहता है। अज्ञान वश ससार मे आवद्ध जीव को 'नलिनी क सुवटा' कहना कवि परम्परा है । यथा--
                 अपनपौं आपुन ही बिसर्यो । 
           *                *                  *
      मरकट मूँठि छौडि नहि दोनी, घर घर द्वार फिर्यो ।
      सूरदास , नलिनी को सुवटा , कहि, कौने पकर्यो ।  (सूरदास)
   (३) कबीर ने अनन्य भक्ति पर जोर दिया है ।
                      (३११)
       चलत कत टेढौ टेढौ रे ।
       नऊ दुवार नरक घरि मूँ दे,तू दुरगंधि को बेढौ रे ॥ टेक॥
       जो जारै सौ होइ भसम तन, रहित किरम जल खाई ।
       सूकर स्घॅन काग कौ भखिन, तामैं कहा भलाई ॥
       फूटे नैन हिरदे नाही सुझे, मति एकै नही जानी ।
       मया मोह ममिता सु वाध्यौ, बुडि सुवौ बिन पानी ॥
       यारु के घरवा मे बैठो, चेतत नही अयानी ।
       कहै फघीर एक राम भगती बिन, बूडे बहुत सयानी ॥