पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७५३

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ग्रन्थावली ] [ ७४९

    शब्दार्थ---नरक=मल, मला | मूर्दे=आपूरित | यैठो =ढेर ,थाला|

किरम= क्रुमि,कीडे |भिखन-भोजन |मुवो=मर थे|

    संदर्भ--कबीर शरीर की असारता बताकर राम भक्ति का प्रतिपादन करते हैं|
    भावार्थ---रे मानव, तुम क्यो इतरा रहे हो? तुम्हारे शरिर की इन्द्रियो रूपी नौ द्वार (दो आँख,दो कान, दो नासा द्वार,मुख तथा मल मूत्र के द्वार) मैले से भरे हुए है और इस प्रकार तू गन्दगी का ढेर अथवा पाला है | मरने पर यदि शरीर को जलाया जाएगा,तो यह भस्म का ढेर हो जाएगा और जो शेष बचेगा, उसको जल के कीडे-मकोडे खाऐंगे |यह शरीर सुअरो,कुतो तथा कौओ का भोजन है। इस पर गर्व करने से क्या लाभ है? संसार की यह निस्सारता देखने के लिए तुम्हारी आँखे फूट गई हैं, हृदय मे तुम्हे इस्की अनुभूति नही होती है तथा ज्ञान की बातों से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नही है| तू माया मोह और ममता के वशीभूत बना हुआ है और इस प्रकार तुम इस संसार सागार मे बिना पानी के ही(अकारण ही) डूबे गये हो | रे प्राणी, यह शरिर रेत का महल है| तुम इसमें बैठे हुए अपने आपको सुरक्षित समझते हो| रे मूर्ख ,तुम होश मे आकार समझते ही नही हो कि यह शरिर क्षण-भगुर है| कबीरदास केहते हैं कि राम भक्ति का अवलम्बन ग्रहण न करने के कारण बहुत से तथा कथित चतुर (पुनियादार) लोग इस भवसागर मे डूब गये|
    अलंकार-- १] गूढोक्ति--चलत      रे|
             २]रूपकातिशयोक्ति-नव द्वारा बारू के घरवा|
             ३]छेकानुप्रास- दुवार,दुरगधि|
             ४]वक्रोक्ति- तामै    भलाई|
             ५]विभावना- बूडि   पानी|
             ६]विरोघाभास-बूडे सयाना|
   विशेष-- [१]बूढ़ै बिन पानी- बुस्तुत यह संसार अमत् है | इसमे विपय जल भी परमार्थत है नही| जीव मिथ्या विषयो मे ही डूबा रहता है| यही बिना जल के भव-सागर मे डूबना है|
        [२] बारू के घरवा मे बैठो--समभाव देखें-
        मोम को मन्दिर माखन को मुनि बैठो हुतासन आसन दीन्हे|
                           [३१२]  

अरे परदेसी पीव पिछांनि| कहा भयौ तोकौं समझि न परई, लागी कैसी वांनि||टेक|| भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ,कहा कियो कहि मोहि | लाहै कारनि मूल गमावै, समझावत हुँ तोहि||