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ग्रन्थावली
के लिए शोर करता है,परन्तु उन इशारो को कोई नहीं समझता है।तुम्हारी शव -यात्रा की तैयारी हो रही है।पाचँ गज कफन मंगाया जा चुका है।पिण्ड -दान के लिए आटा सान लिया गया है।खानी हाँडी में अग्नि रख ली गई है ओर लोग तुझको लाद कर शमशान की ओर चल दिए हैं।बहुत से भाई-बन्धुओ को बुलाकर तेरी अन्त्येष्टि क्रिया संबन्धी समस्त कार्य सम्पन्न कर दिए हैं।कबीरदास कहती हैं कि मेरे इस कथन में कुछ भी झूठ नहीं हैं।तू विपय-वासना मे लिप्त बने रहने की अपनी आदत को छोड दे। ओर निश्चिन्त होकर भगवान राम का भजन कर । कुल की मिथ्मा-मान-मर्यादा के अह्ंकार में मत फँस।
अलंकार -(१)रूपक -यूँंनी,मंदिर । (२)अनुप्रास -करि कुल की कानि । विशेष - (१) वैराग्य भावना का प्रतिपादन है। (२)शांत रस की व्यजना है। (३)विम्व-विधान द्वारा अन्त समय का सजीव चित्रण है। (४)मृत के साथ श्मशान तक जानेवाले उपकरणों का वर्णन यह घोषित करता है कि कबीर लोक -व्यवहार से पूर्णत परिचित थे ।यह उनके गृहस्थ होने का भी प्रमाण है। (५)जिस भाँति वल्लभाचार्य ने भक्ति के मार्ग में 'कुलकानि' परित्याग की बात कही,उसे हम कबीर में भी पाते हैं।मीराबाई ने तो सचमुच कुल की कानि छोड ही दी थी-
छाँड़ि दयी कुल की कानि कहा करिहै कोई। सतन ढिंग बैठी-बैठी लोक- लाज खोई। इसी बात को गोस्वामी जी ने थोडे से फेर के साथ कहा है- जो पै रहनि राम सो नाहीं।
कीरति ,कुल करतूति ,भूति भलि सोल सरूप अलोने । तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग सलोने ।
(३१५) प्राणीं लाल औसर चल्यौ रे बजाइ। सुठी एक मठिया मुठि एक कठिया,सग काहू कै जाइ ॥टेक॥ देहली लग तेरी मिहरी सगी रे ,फलसा लग सगी माइ। मड़हट लूँ सब लोग कुटबी ,हस अकेलौ जाई॥ कहां वै लोग कहां पुर पटण ,बहुरि न मिलबौ आइ। कहै कबीर जगनाथ भजहु रे ,जन्म अकारथ जाई॥
शब्दार्थ - लाल=सुन्दर । औसर = दाय । पहण = बाज़ार ।बजाइ =खेलकर। ।