पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७५९

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तीरथ बरत जपै तप करि करि, बहुत भाति हरि सोधै । सकति सुहाग कहौ क्यूं पावै, अछता कत विरोधै । नारी परिष बसै इरु सगा, दिन दिन जाइ अवोलै। तजि भिमान मिलै नही पीव कूं, ढूढ़त बन बन डोलै॥ कहै कबीर हरि अकथ कथा है, बिरला कोई जानै। प्रेम प्रीति बेघी अंतर गति, कहूँ काहि को मांनै॥

शब्दार्थ- सोधै= खोजे । गति= महिमा । सुहाग= सौभाग्य ।

संदर्भ- कबीर-ज्ञान दशा का वर्ण करते है।

भावार्थ- राम की महिमा का रहस्य कोई नही पाता है। लोग अपने स्वरूप के अभिन्न प्रभु रूपी चिन्तामणि (मनचाही वस्तुएँ देने वाणी मणि) को छोड कर इधर - उधर विभिन्न साधनाओ एंव सिद्धियो मे भटकते रहते है और इस प्रकार अपनी विवेक - बुध्दि भी खो देते हैं। तीर्थ, व्रत, जप- तप आदि करते हुए लोगो ने भगवान को बहुत प्रकार से खोजा, (परंतु उन्हे भगवान की प्राप्ति नही हुई)। कोई नारी अपने पति का विरोध करते हुए भला पति - मिलन सोभाग्य- सुख क्यो कर प्राप्त कर सकती है? जो स्त्री और पुरुष साथ- साथ रहते हुए आपस मे बिन बोले ही समय व्यतीत करते हैं, उनके जीवन मे आनन्द कहाँ से आ सकत है? व्यजना यह है कि जो जीवात्मा अपने पति परमात्मा के साथ निरन्तर रहते हुए भी उससे विमुख रहती है, उस आत्मा सुन्दरी को प्रेमानन्द और परमानन्द की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है? यह जीवात्मा उस नारी के समान है जो मान वश प्रियतम से विमुख रहति है और प्रेमानन्द की प्राप्ति के लिये इधर- उधर चारो ओर मारी- मारी फिरती है। यह जीवात्मा अपने पृथकत्व के भाव को त्याग कर परमात्मा मे अपने अस्तित्व को तो मिलती नही है और आत्मानन्द की प्राप्ति के लिये जंगलो मे जाकर तपस्या आदि करति है। कबीर कहते हैं कि भगवान के प्रेम की महिमा वर्णनातीत है। इसके महत्व को कोई बिरला हो जान पाता है। मेरा अंत करण उस प्रेम- प्रीति द्वारा बिद्ध हो गया है। इस अनुभूति का वर्णन मैं किससे करूँ और कौन इस पर विशवास करेगा।

  अलंकार- (१) सम्बन्धातिशयोक्ति - राम ' कोई।
          (२) रूपक - च्यतामणि प्रभु।
          (३) पुनरूक्ति प्रकाश- भ्रमि भ्रंमि, करि करि, दिन दिन, वन वन।
          (४) वकोक्ति- सकति विरोधै । को मानै।
          (५) निदर्शना- सकति ' डोलै।
          (६) विरोधाभास- अकथ कथा।
          (७) गूढोक्ति- कहँ काहि।
          (८) रूपकातिशयोक्ति- नारी, पुरुष।