पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विशेष- (१) बाह्माचार का विरोध व्यक्त है

     (२) जीवात्मा और परमात्मा का अभिन्नत्व प्रतिपादित है। पृथकत्व भाव भ्रम है। इसकी निवृत्ति द्वारा ही जीव का कल्याण सम्भव है। सूफी कवि कहते आए हैं-- "इशरते कतरा है दरिया मे फना हो जाना।"
    (३) च्यातमणि- खोई। समभाव देखे-
           कस्तूरी कुण्डल वसै, मृग ढूढ़ै वन मांहिं।
           ऐसे घट घट राम हैं दुनियाँ देखे नांहिं।
    (४) विरला कोई जाने। तुलना करें-
     नर सहस्त्र महै सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।
     धर्म सील कोटिक महै कोई। विषय विमुख बिराग रत होई।
     कोटि बिरक्त मध्य स्त्रुति कहई। सम्यक ज्ञान सकृत कोउ लहई।
     ग्यानवंत कोटिक महै कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।
     तिन्ह सहस्त्र महै सब सुख सानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन बिग्यानी।
                                   इत्यादि- गोस्वामी तुलसीदास
                           (३१७)

रांम बिनां संसार धंध कुहेरा,

     सिरि प्रगटथा जांम का पेरा॥ टेक ॥

देव पूजि पूजि हिंदू सूये, तुरक सूये हज जाई। जटा बांधि बांधि योगी मूये, इनमै किनहूँ न पाई॥ कवि कवीनै कवित सूये, कापड़ी के दारौं जाई। केस लूंचि लूंचि सूये बरतिया, इनमै किनहूँ न पाई॥ धन सचते राजा लूये, अरू ले कंचन भारी। बेद पढें पढि पंड़ित मूये, रूप भूले मूई नारी॥ जे नर जोग जुगति करि जांनै, खोजै आप सरीरा। तिनकू सुकति का ससा नाहीं, कहत जुलाह कबीरा॥

शब्दार्थ- घघ= घुघ, घुए का आवरण । कुहेरा= कुहासा, कुहारा । जाम= जम । पेरा= पेरने (दबाव डालकर रस निचोडना) वाला यन्त्र, लक्षण से आरा अथवा फेदा । हज= मक्के की यात्रा । कापडी= कार्यटिक, तीर्थयात्री । लूंचि- लूंचि= नोच - नोच कर । वरतिया= य्रत करने वाले, जैन साधु।

संदर्भ- कबीर आत्म- साक्षात्कार का प्रतिपादन करते हैं।

भावार्थ- भगवान राम की भक्ति के बिना यह संसार घु घ और कोहरे के समान निस्मार है। भावार्थ यह है कि राम भक्ति के अतिरिक्त अन्य समस्त साधनाऍं अज्ञान सशय एवं दिग्भ्रम में डालने वाली हैं। मानव को समझ लेना चाहिए कि यमराज का आरा उसके सिर के ऊपर निरन्तर लटकता रहता है। देवता पूज- पूज कर हिन्दू मर गये हैं, मुसलमान मक्का की यात्रा कर करके मर गये तथा योगी