पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७६१

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ग्रन्थावली जटा-जूट वाँध बाध कर मर गये,परंतु किसी को भी मोक्ष की प्राप्ति नही हुई।कविगण कविता करके मर गये,तीर्थ यात्री केदारनाथ मे जाकर मर गये,जैन मतावलम्बी व्रती साधुओ ने वाख नोच नोच कर प्राण दे दिए,परन्तु इनमे से भी किसी को मोक्ष की प्राप्ती नही हुई।धन एकश्र करते हुए और बहुत सा स्वर्ण बटोरते हुए राजे मर गये,वेदों का अध्ययन करते हुए पंडित मर गये,रूप के अहंकार मे नारियाँ मर गई,परन्तु उद्धार किसी का नही हुआ।जो व्यक्ति भगवान से मिलने की युक्ति जानना चाहते है,वे अपने शरीर के भीतर ही भगवान (परमतत्व) को खोजते हैं।जुलाहा कबीर कहता है कि जो व्यक्ति अपने घर के भीतर भगवान को खोजते हैं उन्हे निश्चित रूप से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अलंकार-१)रूपक-ससार घघ कुहेरा।

     २)पुनरुक्ति प्रकाश=पूजि पूजि,बोधि बोधि,लू चि लू चि।
     ३)वृत्यानुप्रास-कवि कवीनै कविता कापडी।
 विशेष-१)घघ कुहेरा- "असत् एवं अचित" अभिप्रेत है।
  २)बाह्माचार की निरथंकता प्रतिपादित है।
   ३)अह-भावना एवं आक्ति के प्रति तीव्र विरोध व्यक्त है।
   ४)जुलाहा-जात्याभिमानियो के प्रति व्यग्य है।
                 (३२५)
        कहू रे जे कहिबे की होइ।
     नां को जानै नां को मानै,ताथै अचिरज मोहि॥टेक॥
     अपनै अपनै रंग के राजा,मानत नांही कोई।
     अति अभिमान लोभ के घाले,चले अपन पौ खोइ॥
     मै मेरी करि यहु तन खोयो,समझत नही गवार।
     भौजलि अधफर थाकि रहे हैं,बुड़े बहुत अपार॥
     मोहि आग्या दई दयाल दया करि काहू कू समझा।
     कहै कबीर मै कहि हारयौ,अब मोहि दोस न लाइ॥

शब्दार्थ-घाले=मारे हुए,वशीभूत। भौजल=भव जल,भवसागर। अघफर=फर=युद्ध-लक्षण से मागं। संदर्भ-कबीरदास संसार के व्यक्तियों के अज्ञान के प्रति अपना क्षोभ प्रकट करते है। भावार्थ-मै तो वे ही बातें कहता हूँ जो कहने योग्य होति हैं।परन्तु उनको न तो कोई समझता है और न उन पर कोई विश्वास ही करता है।इसी से मुझे आश्चर्य होता है ।सभी लोग अपने अपने रंग मे मस्त हैं।इसी लिए कोई मेरी बात को मानता नही है।वे अत्यन्त अभिमान और लोभ के वशीभूत हैं।उन्होने अपनत्व को खो दिया हैं अर्थात् वे अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप को भूल गये हैं।ये मूर्ख वास्तविकता तो समझते नही हैं।इन्होने "मैं और मेरी" के फेर मे ही