अब हुम जगत गौहन तै भागे,
जग की देखि गति राँमहि ढूंरि लोग॥ टेक ॥
अयांन पनै थैँ बहु बौराने, समझि परि तब फिरि पछितानें। लोग कहौ जकै जो मनि भावै, लहै भुवगम कौन दसावै॥ कबीर बिचारि इहै डर डरिये, कहै का हो इहां नै मरिये।
शब्दार्थ- गौहन= गोहन, सग साथ । ढुरि लागे= ढुलक गये, झुक गये । अयांन= अज्ञान । भुवगम= सर्प, मोह भ्रम ।
सन्दर्भ- कबीरदास ज्ञान- दशा क वर्णन करते हैं।
भावार्थ- अब मैं जगत के प्रति आसक्ति को त्याग रहा हूँ। संसार का जो दुःख दायि ढंग है, उसको देखकर अब मैं भगवान की ओर झुक गया हूँ। अज्ञान के कारण मैंने माया मोह के वशिभूत होकर अनेक पागलपन के काम किए। परन्तु अब ज्ञान हो जाने पर मैं अपने किए हुए कर्मों पर पश्चाताप कर रहा हुँ। मेरे बारे मे लोग जो चाहें सो कहे। परन्तु मैं अब भगवद्प्रेम के मार्ग को नहिं छोडूँगा। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भ्रम एव्ं मोह रूपि सर्प कोई क्योकर डसावेगा? कबीर खूब सोच- समझ कर कह्ते हैं कि विषय-वासना रूपि सर्प के डर से डरते रहना चाहिए। किसि के कहने से क्या होता है? विपयासक्ति मैं फ्ँस कर अपना जीवन नष्ट नहिं करना चाहिए।
अलंकार- (१) रूपकातिशयोक्ति- भुवगम।
(२) वकोक्ति पुष्ट निदर्शना लहै डसावै। (३) गूढोक्ति- कहै का हो। विशेष- ज्ञान- प्राप्ति के पश्चात विपयासक्ति का सर्प सद्यश भयावक प्रतीत होन सर्वथा स्वभाविक है। विपयासक्ति और ज्ञानावस्था परस्पर विरोधी हैं। समभाव की अभिव्यक्ति देखें- मैं अब नाच्यो बहुत गोपाल। काम मोध को पहिरि चोलना कण्ठ विषय की माल। (सूर्दास)
तथा- अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।
× × × मन मधुकर पन के तुल्सी, रघुपति- पद- कमल बसैहौं। (गोस्वामी तुलसीदास्) (३२४) राग भैरू
ऐसा ध्यान धरौ नरहरि,
सबद अनाहद च्यतन करी॥ टेक ॥
पहली खोजौ पंचे बाइ, बै ब्यंद ले गगन समाइ॥ गगन जोति तहां त्रिकुटि सधि, रवि ससि पवनां मेलौ बधि॥