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[कबीर की साखी
 


संदर्भ—सतगुरु दिव्यशक्ति से सम्पन्न है। उनकी महत्ता, महिमा अनिर्वचनीय है। उन्होंने अनन्त कृपा करके शिष्य को अपरिमेय शक्ति प्रदान की।

भावार्थ—सतगुरु की महिमा अनन्त है। उनकी महत्ता का वर्णन नहीं हो सकता है। उन्होंने शिष्य के प्रति अनन्त उपकार किए हैं। उन्हीं की असीम कृपा से अनन्त अर्थात-ज्ञान के चक्षु उद्घाटित होगा। उनकी असीम कृपा से अनंत, निराकार निर्विकार ब्रह्म के दर्शन हो गए।

शब्दार्थ—अनंत = अनन्त, असीम। उपगार = उपकार। लोचन = नयन। उघाड़िया = उघाड़, उद्घाटित किया। दिखावण्हार = दिखावनहार = दिखाने वाला।

राम नाम कै पटंतरै देबै कौं कुछ नाँहि।
क्या ले गुरु संतोषिए, हौस रही मन माँहि॥४॥

संदर्भ—शिष्य के मन में असीम कृतज्ञता की भाव है। वह सतगुरु के प्रति प्रतिदान की इच्छा रखता है, पर गुरुदेव के प्रति क्या समर्पित किया जाय यह संकल्प विकल्प मन में साकार रहता है। उसकी अभिलाषा अपूर्ण ही रह गई।

भावार्थ—सतगुरु ने 'रामनाम' जैसी दिव्य वस्तु का दान शिष्य को दिया। शिष्य के पास प्रतिदान के लिए कोई भी उपयुक्त पदार्थ नहीं है। शिष्य के मन में हौसला, अभिलाषा, आकांक्षा अपूर्ण एवं बलवती बनी हुई है कि सतगुरु के महान् व्यक्तित्व की अनुकूल कौन-सी वस्तु प्रतिदान में दी जाय।

शब्दार्थ—पटंतरै—समान, बराबर। देवै—देने योग्य। कौ—को। ले—दे, देकर। सन्तोषिए—प्रसन्न कीजिए। हौसं = हौसला—इच्छा, आकांक्षा। मनमाँहि मन में।

सतगुर के सदकै करूँ दिल अपणीं का साछ।
कलियुग हम स्यूँ लड़ि पड़या मुहकम मेरा बाछ॥५॥

संदर्भ— सतगुरु सर्वथा प्रशंसनीय है, वंदनीय है। उसकी महती कृपा से शिष्य कलियुग से पराभूत होने से बच गया।

भावार्थ—अपने हृदय की समस्त सत्यता को साक्षी करके, पूर्ण मनोयोग से मैं सद्गुरु के चरणों में अपने को न्यौछावर करता हूँ। कलियुग ने पूर्ण शक्ति के साथ मेरे प्रति आक्रमण किया परन्तु मेरी बाधाएँ बलशालिनी थी। अतः मैं सद्गुरु की कृपा से भवसागर उत्तीर्ण हो गया।

शब्दार्थ—सदकै = सिर का—बलि जाऊँ, न्यौछावर जाऊ। दिल = हृदय। स्यूँ = से। पड़या = पड़ा। मुहकम = प्रवल, बलशाली। बाछ = वाँछा, अभिलाषा।