पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७७१

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नांहीं देखि न जाइये भागि,तहां नही तही रहिये लागि ॥ मन मजन करि दसवै द्वारि,गंगा जमुना सधि बिचारि ॥ नादहिं ब्यंद कि ब्यदहि नाद, नादहि ब्य्द मिलै गोब्यंद ॥ गुणातीत जस निरगुन आप, भ्रम जेबडी जम कीयौ साप ॥ तन नांही कब जब मन नांहि, मन परतीत ब्रहा मन मांहि ॥ परहरि बकुला ग्रहि गुन डार, निरखि देख निधि वार न पार ॥ कहै कबीर गुर परम गियांन, सुंनि म्ंडल मै धरौ धियांन ॥ प्यड परे जीव जैसे जहां, जीवन ही ले राखौ तहां ॥ शब्दार्थ- दसवैं द्वरि = व्रहारन्ध । जेवडी = रस्सी । बकुला - वल्कल, त्रिगुणात्मक आवरण । ग्रहि = पकडो । गुनडार = तात्विक गुण । सदार्भ-