पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७७४

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७७० ] [ कबीर ( ३२८ ) तहां जौ राम नाम ल्यौ लागै, तौ जुरा मरण छटै भ्रम भागै ॥टेक॥ अगम निगम गढ़ रचि ले अबास, तहवां जोति करै परकास । चमकै बिजुरी तार अनत, तहां प्रभू बैठे कवलाकंत ।। अखड मंडिल मंडित मड, त्रि स्नान करै त्रीखड । अगम अगोचर अभिअतरा, ताकौ पार न पावै धरणींधरा ॥ . अरघ उरध विचि लाइ ले अकास, तहवां जोति करै परकास । टारयौ टरै न आवै जाइ, सहज सू नि मैं रह्यो समाइ ॥ अबरन बरन स्यांम नहीं पीत, हाह जाइ न गावै गीत । अनहद सबद उठे झणकार, तहां प्रभू बैठे समरथ सार ।। कदली पुहुप दीप परकास, रिदा पंकज मै लिया निवास । द्वादस दल अभिअंतरि म्यत, तहां प्रभ पाइसि करिलै च्यत ॥ अमिलन मलिन घांम नही छांहां, दिवस न राति नहीं है तहाँ । तहाँ न ऊगे सूर न चद, आदि निरंजन करै अनंद ॥ ब्रह्मडे सो प्यंडे जांनि, मानसरोवर करि असनांन । सोहं हसा ताकौ जाप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप ॥ काया मांहै जांने सोई जो बोले सो आपै होई । जोति मॉहि जे मन थिर करै, कहै कबीर सो प्रांणी तिरै ॥ शब्दार्थ-~-गढ =कपाल, शून्य, ब्रह्मरन्ध्र। बिजुरी-बिजली। कुण्डलिनी त्रिखण्ड=तीनो लोक, तीनों गुण । त्रिअस्नान = तीनो कालो मे (सदैव) स्नान करत हैं । धरणधिरा=शेषनाग । रिदा हृदय । संदर्भ-कवीरदास प्रतीको के माध्यम से परम तत्त्व की अनुभूति-दशा की व्यंजना करते हैं। भावार्थ-सहस्रार कमल मे विराजमान राम मे यदि ध्यान लगजाता है, तो जरा-मरण का वन्धन छूट जाता है और समस्त अज्ञान जन्य भ्रम समाप्त हो जाता है । ब्रह्मरन्ध्र रूपी किले मे एक आवास बना हुआ है । वहाँ तक चेतना का पहुंचना अत्यत कठिन है और वहाँ पहुंचने पर समस्त गति समाप्त हो जाती है। (अर्थात् वहां पहुंच जाने पर पुनरावर्तन नही होता है)। वही पर ब्रह्म-ज्योति का प्रकाश होता है। वहां पर कुण्डलिनी रूपी बिजली चमकती है और अनन्त तारागण भी खिले हुए हैं। वही पर भगवान कमलाकात विराजमान हैं। वही पर प्रकाश के असण्ड मण्डलो से मडित परम ब्रह्म की ज्योति के दर्शन होते हैं। इस ज्योति में तीनो कालों मे (मदेव) इसके विगुण थप निमज्जित रहते हैं। यह अगम्य और धगोचर प्रकाश आभ्यन्तर तत्व है (गुहानिहित है)। शेपनाग भी इसका पार नही पा सके हैं। पिण्ड और ब्रह्माण्ड के मध्य में व्याप्त गगन-तत्त्व का ध्यान करो। वही