पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७७५

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ग्रन्थावली ] [ ७७१ पर ज्योति का प्रकाश भी है । सहज रूप से शून्य मे प्रतिष्ठित रहने वाला यह चैतन्य-स्वरूप तत्व टस से मस नही होता है और न उसका आवागमन ही होता है। न तो उसे वर्णहीन कहा जा सकता है और न उसका कोई वर्ण (रग) ही बताया जा सकता है अर्थात् वह वर्णनातीत है। वह न काला है, न पीला है। वहाँ पर न हा-हू (शोरगुल) है और न गीत नाच ही है। अर्थात् वहाँ पर लौकिक शब्द नही होता है । वहाँ पर अनाहद नाद की मधुर झकार होती है। वही पर समर्थ एव सारभूत तत्व भगवान विराजमान हैं। कदली पुष्प के समान हृदय-कमल मे उस दीपक स्वरूप ज्योति का प्रकाश है। हृदय-कमल मे स्थित अनाहद चक्र के बारह पखडी वाले कमल के भीतरी भाग पर ध्यान केन्द्रित करो और उसी का चिन्तन करो। वही तुमको प्रभु का साक्षात्कार होगा । वहाँ न अपवित्रता है और न पवित्रता, न धूप है, न छाँह है, न दिन है न रात है, वहाँ न सूर्य का उदय होता है और न चन्द्रमा ही उदित होता है। ऐसे स्थल पर वह आदि निरजन पुरुष आनद पूर्वक निवास करता है। जो कुछ ब्रह्माण्ड में है उसको पिण्ड मे जान लो। इस अभेद-ज्ञान रूप मुक्तावस्था को प्राप्त करके जो आत्म-स्वरूप रूपी मानसरोवर मे स्नान करते हैं, निमग्न हो जाते हैं और ज्ञान स्वरूप होकर सोऽह (जीवईश्वर के अभेद द्वार व्यजित चैतन्य) का शाश्वत ध्यान करते हैं, वे पाप-पुण्य से लिप्त नही होते हैं अर्थात् वे कर्म-बन्धन से परे हो जाते हैं। शरीर मे उस परम तत्व को विराजमान जानकर, जो राम का नाम बोलता है वह आत्म-स्वरूप हो जाता है। कबीर कहते हैं कि जो व्यक्ति उस परम ज्योति मे मन को दृढतापूर्वक लगा देते हैं अथवा जिनका भन अविचल भाव से इस परम ज्योति मे लग जाता है, वे इस भवसागर से पार हो जाते हैं। अलकार-(1) रूपकातिशयोक्ति–प्राय सम्पूर्ण पद मे नाथ पथ के प्रतीको का प्रयोग हुआ है। (u) सभग पद यमक-अबरन बरन, अमलिन मलिन, पदमैत्री-अबास परकास, अगम निगम, अरध उरध । म्यत च्यंत । (iv) वृत्यानुप्रास-अगम अगोचर अभिअतरा, सहज सुनि समाइ, गाहन गावै गीत, (v) सम्बन्धातिशयोक्ति-पार न-धरणीधरा । (vi) विशेषोक्ति-टार्यो टरै न । (vir) छेकानुप्रास-टारयौ टरै । समरथ सार, (vii) रूपक-रिदा पकज । मानसरोवर । विशेष—(1) परम तत्व को इन्द्रयातीत एव वर्णनातीत बताया है। वह लौकिक वाणी के प्रतीत है। (1) तार अनंत-प्रतीयमान विरोधो का वहाँ सामजस्य है।