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[कबीर
 

नांउ मेरे बंधव नाँव मेरे भाई, अत बिरियाॅ नाँव सहाई॥
नांउ मेरे निरधन ज्यूं निधि पाई, कहै कबीर जैसे रंक मिठाई॥

शब्दार्थ—बारी=बाटिका। बंधन=बान्धव।

संदर्भ—कबीरदास प्रभु-नाम की महिमा का प्रतिपादन करते हैं।

भावार्थ—मेरे पास हरि का नाम रूपी वह धन है जिसे मैं न गाँठ मे बाँधता हूँ और न बेचकर खाता हूँ। यह नाम ही मेरी खेती है और यही मेरी बारी है। मैं तुम्हारी ही भक्ति करता हूँ और तुम्हारी शरण में हूँ। आपका नाम ही मेरी सेवा है, नाम ही पूजा है। मैं आपके अतिरिक्त अन्य किसी देवता को नहीं जानता हूँ। भगवान का नाम ही मेरे लिए बान्धव है और भगवन्नाम ही मेरा भाई है। अन्त समय में मुझको आपके नाम का ही सहारा है। भगवान का नाम मेरे लिए निरधन को प्राप्त हो जाने वाले खजाने के समान है। कबीर कहते हैं कि (गुरु के द्वारा प्राप्त) भगवन्नाम मेरे लिए ऐसे ही है जैसे किसी भिखारी को मिठाई मिल गई हो।

अलंकार—(i) रूपक—हरि को नाँउ धन।
(ii) व्यतिरेक—गाँठि—खाउँ।
(iii) उल्लेख—नाम का विभिन्न रूपो में वर्णन है।
(iv) उपमा—नाँउ... मिठाई।

विशेष—(i) गाँठि न बाँध्यौ बेचि न खाउँ तथा नाम मेरे सेवा आदि कथन के द्वारा कवि यह कहना चाहता है कि हरि का नाम साधन न होकर साध्य ही है। सामान्य धन की भाँति न तो वह उसका सग्रह (Hoardings) ही करते हैं और न उसके बदले वह किसी अन्य उपयोगी वस्तु को प्राप्त करने की आशा ही करते हैं। हरिनाम के द्वारा कबीर भुक्ति-मुक्ति कुछ भी प्राप्त नहीं करना चाहते हैं।

(ii) खेती-बारी सासारिक वैभव से तात्पर्य है।

(iii) इस पद से अनन्यता की अभिव्यक्ति हैं तथा भक्ति को साधन एव साध्य दोनों ही बताया गया है। गोस्वामी तुलसीदास भी भक्ति का सबसे बड़ा फल भक्ति ही मानते हैं। यथा—

जो जगदीस तो अति भलौ जो महीस बड़ भाग।
तुलसी चाहत जनम भर राम-चरन अनुराग।

वस्तुत भक्त के सहजशील का सजीव चित्रण है—

धर्म न अर्थ न काम रुचि गति न चहौं निर्वान।
जनम-जनम रति राम पद यह वरदान न आन।

(३३४)

अब हरि हूँ अपनौं करि लीनौं,,
प्रेम भगति मेरी मन भीनौं ॥टेक॥
जरै सरीर अग नहि मोरौं, प्रान जाइ तौ नेह न तौरौं॥