पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७८३

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ग्रन्थावली] [७७३ च्यतामणै क्यू पाइए ठोली,मन दे राम लीयों निरमोली || ब्रह खोजत जनम ग्वयौ, सोई राम घट भीतरी पायौ|| कहे कबीर छूटी सब आसा, मिल्यौ राम उपज्यौ बिसवासा|| शब्दाथ--भीनौ=भीग गया है, युत हो गया है। मोरी=मोडूगा। त्मली=यही विना परिश्रम के। निरामोली=अमुल्य।आसा= सासारिक अशाए अथव अन्य प्रकार कि साधनाअ से मुवित प्रस्य होने की अशा। सदभ- कबीर प्रभु- भक्ति के प्रति अपनी हड निष्ठां व्यक्त करते हे| भावार्थ -अब भगवान ने मुझको अपना बना लिया है और मेरा मन उनके प्रेम और उनकी भक्ति के रस में पूरी तरह निमग्न (भीग) गया है | प्रेम भक्ति के मार्ग पर चलते हुए मेरा शारीर जल भी जाये, तब भी मैं इससे अपने अंगों को नहीं मोडूँगा - इस मार्ग को नहीं छोडूंगा | यदि प्रभु की भक्ति में मुझे अपने प्राण देने पड़े, तब भी मैं भगवान के प्रति प्रेम को समाप्त नहीं करूँगा | हरि-रूपी चिन्ता-मणि ऐसे ही बिना परिश्रम के क्या कभी प्राप्त होती है ? मैंने अमूल्य राम-नाम को अपना मन देकर प्राप्त किए है | मैंने जिस भगवान को इधर उधर विभिन्न साधनाओ में खोजते हुए अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया | उसी भगवान को मैंने अपने हृदय के भीतर प्राप्त कर लिया है | कबीरदास कहते हैं की मेरी समस्त सासारिक आशाएं समाप्त हो गयी हैं | राम का साक्षात्कार हो जाने से अब मेरे मन में यह विश्वास उत्प हो गया है कि मेरा उद्धार हो जायेगा |

अलकार - (1) विशेषोक्ति की व्यजना - जरै तोरौ |

       (11) रुपकातिशयोति - च्यतामणि | 
       (111) वत्रोक्ति - क्यू पाइए ठोलि |

विशेष - भक्ति के उदय की आनन्दावस्था का वर्णन है |

        (३३५) 

लोग कहै गोबरधानधारी,

           ताकौ मोहिं अचभौ भारी ||टेक||

अष्ठ कुली परबत जाके पग की रैनां,सातौं सायर अजान नेनां || ऐ उपमां हरि किती एक औपे, अनेक मेर नख ऊपरि रोपै || धरनि अकास उधर जिनि राखी, ताक्री मुगधा कहै न साखी || सिब बिरंचि नारद जस गावै, कहैं कबीर वाको पार न पावै ||

सन्दर्भ - कबीर भगवान को वाणी के परे बताते हैं |

भावार्थ - लोग भगवान को गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाला कह कर उसकी शक्ति का वर्णन करते हैं | उनकी इस बुद्धि पर मुझओ बहुत आश्चर्य होता है |