सम्पूर्ण अष्ट कुल के पर्वत उस परमात्मा के पैर की धूल मात्र है और सातो समुद्र उसके नैत्रो के अजन मात्र है। उन भगवान ने अनेक सुमेरु पर्वत अपने नाखून के ऊपर टिका रखे है। ऐसे शक्तिशाली भगवान के लिये गोवरधेन धारि की उपमा कहा तक उपयुतक् हो सकती ह? जिसने पृथ्वी और आकाश को बिना किसि आधार के टिका रखा है, उन भगवान के साक्शात्कार का वर्णन अग्यानी मूर्ख कदापि नही कर सकते है, अर्थात् मूख उन्के स्वरूप की क्या साखि देगे? कबीरदास कहते है की शिव ब्रह्मा और नारद उस परम्ब्रह्म के यश का निरन्तर गान करते है परन्तु उसकी शति का पार वे भी नही पा सकते है।
अलन्कार--(१)परिकराकुर--- गोवर्धन धारी। (२)अतिश्योकति-- अष्ट कुली नैना। (३) वक्तौक्ति--किती ऐक औप। (४)व्यतिरेक--अनेक मेर--- रोप। (५)विभावन कि व्यजना---धरनि----राखी। (६)सम्बन्धातिशयोकति--पार न पावे। विशेष---(१)असीम ब्रह्मा को ससीम मानने की धारणा का प्रत्यारूयान किय गया है। इस प्रकार सगुण भक्ति का विरोध है। (२)असीम तत्व का ससीम ऐव सगुण बिम्बो से प्रतिपादन है। (३३६) राम निरजन न्यारा रे, अजन सकल पसारा रे॥टेक॥ अंजन उतपति वो उकार, अजन मान्ड्या सब बिस्तार॥ अंजन ब्रह्मा सकर इद, अजन गोपि सगि गोब्यद॥ अंजन बाणीं, अंजन बेद, अंजन कीया नांनां भेद || अंजन विध्यन् पाठ पुरानं, अंजन फ़ोकट कथहि गियानं || अंजन पाती अंजन देव, अंजन की करै अंजन सेव || अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावै || अंजन कहौं कहाँ लग केता, दानं पुनि तप तीरथ जेता || कहै कबीर कोई बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै ||
सन्दर्भ - कबीर कहते हैं कि यह समस्त संसार माया का ही पसारा है |
भावार्थ - माया रहित राम समस्त जगत से परे एवं भिन्न है | यह समस्त जगत केवल माया का प्रसार है | ओकार की उत्पत्ति माया से है,माया ने ही इन विभिन्न नाम - रूपों में विस्तार किआ है | ब्रम्हा, शंकर, इन्द्र तथा गोपियों के साथ रहने वाला कृष्ण ओर वेद माया ही है | वाणी और वेद माया ही है | माया ने ही ये विभिन रूपात्मक भेद किये है अथवा माया प्रश्रय से ही यह रूपात्मक जगत