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[कबीर
 

(11) समभाव के लिए देखें—
मैं अरु मोर तोर तै माया। जेहिं वस कीन्हें जीव निकाया।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। विद्या अपर अविद्या दोऊ।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भव कूपा।
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहि निज बल ताकें।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देखत ब्रह्म समान सब माहीं।

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माया ईस न कहुँ जान-कहिअ सो जीव।
बध मोच्छ प्रद सर्ब पर माया प्रेरक सीव।

(गोस्वामी तुलसीदास)

(३३८)

                           
एक निरंजन अलह मेरा,
हिंदू तुरक दहूँ नही मेरा ॥टेक॥
राखूं ब्रत न महरम जांनां, तिसही सुमिरू जो रहै निदांना।
पूजा करूं न निमाज गुजारूं, एक निराकार हिरदै नमसकारूं॥
नां हज जांऊं न तीरथ पूजां, एक पिछांण्या तौ का दूजा॥
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूॅ मन लागा॥

शब्दार्थ—निदान=अत मे। पिछाण्या=पहचान लिया। नेरा=पास।

सन्दर्भ—कबीर परम तत्व निरजन के प्रति अनुरक्त होने का उपदेश देते है।

भावार्थ—मेरी निष्ठा तो एकमात्र मायारहित अल्लाह (परमात्मा) में है। हिन्दू और मुसलमान दोनो में कोई भी उसके निकट नहीं पहुँच पाए हैं। अथवा इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि मुझे हिन्दू अथवा मुसलमान किसी भी सम्प्रदाय से कोई वास्ता नहीं है। मे न व्रत रखता हूँ और न में मुहर्रम में विश्वास रखता हूँ। मैं तो केवल उसका स्मरण करता हूँ जो एकमात्र सत्य होने से अन्तत अवशिष्ट रह जाता है। अर्थात् जो माया एव उसके सम्पूर्ण प्रपच के लुप्त हो जाने के पश्चात् अवशिष्ट रह जाता है। मे न किसी देवता की पूजा करता हूँ और न मसजिद में जाकर नमाज ही पढता हूँ। मैं तो एक मात्र निराकार परमात्मा को हृदय में धारण करके नमस्कार करता हूँ। न मैं हज (मक्का) जाता हूँ और न तीर्थो, में जाकर पूजा ही करता हूँ। अब मैंने तो एक परम तत्त्व को पहचान लिया है, तब फिर अन्य किसी देवता अथवा किसी साधना की क्या आवश्यकता है? कबीरदास कहते हैं कि मेरे समस्त भ्रम नष्ट हो गये हैं और एक मात्र तत्त्व निरजन में मेरा हृदय रम गया है।

अलकार—वक्रोक्ति—एक......क्या दूजा?