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[कबीर
 

(३४२)

मन न डिगै ताथै तन न डराई,
केवल रांस रहे ल्यौ लाई। टेक।
अति अथाह जल गहर गभीर, बांधि जंजीर जलि बोरे है कबीर॥
जल की तरँग उठी कटि हैं जंजीर, हरि सुमिरन बैठे हैं कबीर॥
कहै कबीर मेरे संग न साथ, जल थल मैं राखै जगनाथ॥

शब्दार्थ—दिगै=विचलित होता है। ल्यौ=लगन, लौ।

सन्दर्भ—कबीर सिध्दावस्था का वर्णन करते है।

भावार्थ—मेरा मन अब विषय-वासनाओ के कारण विचलित नहीं होता है अर्थात् मैं अब सासारिक सुखों के प्रप्ति आसक्त नही रहा हूँ। इसी कारण मुझ को अब अपने शरीर की ओर से भी भय नहीं है अर्थात् मुझको इस बात की ज़रा भी आशंका नहीं है कि मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ मुझ को विषयो के प्रति प्रवृत्त हो जाएँगी। मैने केवल भगवान राम के प्रति अपनी लगन लगा रखी है। यह ससार रूपी जल अत्यन्त गहरा और गम्भीर था। कर्मो की श्रृखला ने कबीर को बाँध कर इसमे डुबो दिया था। इस संसार रूपी जल में ही ईश्वर भक्ति की लहर उठी और कर्म-बन्धन की वह जजीर टूट गई। कबीर संसार-सागर से निकलकर हरि-स्मरण रूपी तट पर जाकर बैठ गये हैं। कबीर कहते हैं कि मेरा कोई संगी-साथी नहीं है अर्थात् ससार के किसी भी व्यत्कि के प्रति मैं अनुरत्त नहीं हूँ। जल-थल में सर्वत्र मेरी रक्षा करने वाले तो एक मात्र जगत के स्वामी भगवान ही हैं।

अलंकार—(i) पदमैत्री—मन न—डराई।

(ii) रूपक—हरि सुमिरन तट।

(iii) रूपकातिश्योत्ति कि व्यंजना—जल जंजीर।

(iv) विभावना की व्यंजना—जल की तरग—जंजीर।

विशेष—(i) मन पर नियन्त्रण आवश्यक है। मन पर नियन्त्रण होते ही इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।

(ii) भक्ति के लिए संसार त्याग की आवश्यकता नहीं है। भक्ति तो मन की दशा विशेष है। जल की तरग उठि में यही व्यजना है।

(iii) जल की तरंग कटि है जंजीर। मन के अन्तमुँखी होते ही समस्त कर्मो का क्षय हो जाता है। यथा—

सम्मुख होइ जीव मोहिं जब हीं। जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं।

(रामचरितमानस)

(iv) तट बैठे हैं कबीर—तट पर बैठने का अभिप्रेत है—तटस्थ दृष्टि हो जाने। व्यक्ति ससार में लिप्त नहीं रहता है। वह समस्त घटनाओं का दृष्टापात्र हो जाता है। कबीर का कहना है कि राम-भजन के प्रभाव से वह राग द्वेष से मुक्त हो गये हैं।