पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ग्रन्थावली]
[७८९
 

(३४४)

हरिजन हस दसा लिये डोलै,
निर्मल नांव चवै जस बोलै ॥टेक॥
मान सरोवर तट के बासी , रांम चरन चित आंन उदासी॥
मुकताहल बिन चंच न लांवै, मौंनि गहै कै हरि गुन गांवै॥
कऊवा कुबधि निकट नहि आवै, सो हसा निज दरसन पावै॥
कहै कबीर सोई जन तेरा, खीर नीर का करै नबेरा॥

शब्दार्थ—हँस=ज्ञानी, शुद्ध विवेकी। आन=अन्य वस्तुएँ। चवै=चुवै, निस्सृत होता है।

संदर्भ—कबीर सच्चे भक्त का वर्णन करते है।

भावार्थ—भगवान के भक्त हस की भाँति संसार मे विचरण करते है अर्थात् वे जीवन मे विवेकपूर्ण आचरण करते है। उनके मुख से भगवान का निर्मल नाम सहज रूप से सदैव निकलता रहता है। वे सदैव भगवान का गुणगाण करते है। वे मानसरोवर के किनारे रहते है। उनका हृदय राम के चरणो मे ही लगा रहता है तथा जगत की अन्य सभी वस्तुओ के प्रति वे उदासीन रहते हैं। ये इस ज्ञान एव भक्ति रुपी मोती के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का स्पर्श भी नही करते है। वे या तो मौन रहते है, सबका भगवान का गुणगान करते है (उनके मुँह मे राम गुण चर्चा के अतिरिक्त अन्य कोई बात निकलती ही नही है।) कुबुद्धि रूपी कौआ इन मुक्तात्मा रूपी हसो के पास तक नही फटकता है। ऐसे ही विवेकी सतो को आत्मस्वरुप का साक्षात्कार हो पाता है। कबीरदास कहते है कि जो भक्त नीर-क्षीर का विवेक कर पाता है आर्थात् जो सत्यासत्य का निर्णय करने मे समर्थ होता है, वही तेरा सच्चा भक्त है।

अलंकार—साग रुपक—सम्पूर्ण पद।

विशेष—(i) इस सोऽहम् का अपभ्रश रूप है। तात्पर्य आत्मज्ञानी है।

(ii) मानसरोवर—कायायोग मे मानसरोवर का अर्थ शून्य-शिखर—ब्रह्म रन्ध्र है। राजयोग मे इसका अर्थ 'बुध्दि मनस' होता है। जो सदैव ह्रदय रूपी सरोवर मे आत्म-दर्शन करते है और इस प्रकार अपने दोषो का प्र्क्षालन करते रहते है।

(iii) खीर नीर का निवेरा—इस के विषय मे यह प्रवाद प्रचलित है कि वह दूध मे से दूध तत्त्व को ग्रहण कर लेता है और पानी तत्व को छोड देता है। इस प्रवाद को लेकर ज्ञानी एव विवेकी जन का निरुपण करने की एक मान्य परम्परा है—

जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कोन्ह करतार।
सत-हस पय-गुन गहहिं परिहरि बारि-विकार।

(गोस्वामी तुलसीदास)